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________________ पोग २३५ शीर्षक में की जा चुकी है। ___ क्रम-शुक्लध्यान करने वाला क्रमशः महद् आलम्बन की ओर बढ़ता है। प्रारम्भ में मन का आलम्बन समूचा संसार होता है। क्रमिक अभ्यास होते-होते वह एक परमाणु पर स्थिर हो जाता है। केवली दशा आते-आते मन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। ___ आलम्बन के संक्षेपीकरण का जो क्रम है, उसे कुछ उदाहरणों के द्वारा समझाया गया है। जैसे समूचे शरीर में फैला हुआ जहर डंक के स्थान में उपसंहृत किया जाता है और फिर उसे बाहर निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार विश्व के सभी विषयों में फैला हुआ मन एक परमाणु में निरुद्ध किया जाता है और फिर उससे हटाकर आत्मस्थ किया जाता है। जैसे ईंधन समाप्त होने पर अग्नि पहले क्षीण होती है, फिर बुझ जाती है, उसी प्रकार विषयों के समाप्त होने पर मन पहले क्षीण होता है, फिर बुझ जाता है-शान्त हो जाता है। जैसे लोहे के गर्म बर्तन में डाला हुआ जल क्रमशः क्षीण होता जाता है, उसी प्रकार शुक्लध्यानी का मन अप्रमाद से क्षीण होता जाता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार योगी का चित्त सूक्ष्म में निविशमान होता है, तब परमाणु में स्थित हो जाता है और जब स्थूल में निविशमान होता है, तब परम महत उसका विषय बन जाता है। इसमें परमाण पर स्थित होने की बात है पर यह स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने के क्रम की चर्चा नहीं है। ध्येय-शुक्लध्यान का ध्येय पृथक्त्व-वितर्क-सविचार और एकत्ववितर्क-अविचार-इन दो रूपों में विभक्त है। पहला भेदात्मक रूप है और दूसरा अभेदात्मक । इनका विशेष अर्थ 'ध्यान के प्रकार' में देखें। ध्याता-ध्याता के लक्षण धर्मध्यान के ध्याता के समान ही हैं। अनप्रेक्षा-देखिए 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक । लेश्या-शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों में लेश्या शक्ल होती है, तीसरे चरण में वह परम शुक्ल होती है और चौथा चरण लेश्यातीत होता लिङ्ग-शुक्लध्यान के चार लिङ्ग (लक्षण) हैं। देखिए 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में। १. ध्यानशतक, ७० । २. पातंजल योगसूत्र, ११४० । 3. ध्यानशतक E । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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