SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग १६१ धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं१. एकत्व, ३. अशरण और २. अनित्य, ... ४. संसार। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं१. अनन्तवर्तिता-भव-पराम्परा अनन्त है। २. विपरिणाम-- वस्तु विविध रूपों में परिणत होती रहती है। ३. अशुभ- संसार अशुभ है। ४. अपाय- जितने आश्रव हैं, बन्धन के हेतु हैं, वे सब मूल दोष हैं।' इनमें से धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं बारह भावनाओं के वर्ग में संगृहीत हैं । बारह भावनाएं इस प्रकार हैं--- १. अनित्य ७. आश्रव २. अशरण ८. संवर ३. संसार ६. निर्जरा ४. एकत्व १०. लोक ५. अन्यत्व ११. बोधि-दुर्लभ ६. अशौच १२. धर्म चार भावनाएं१. मैत्री ३. कारुण्य २. प्रमोद ४. माध्यस्थ्य इन भावनाओं के अभ्यास से मोह की निवृत्ति होती है और सत्य की उपलब्धि होती है। भगवान् महावीर ने कहा-'जिसकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है। वह तट को प्राप्त कर सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।" आगमों में इनका प्रकीर्ण रूप इस प्रकार हैअनित्य भावना धीर पुरुष को मुहूर्त-भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। अवस्था १. स्थानांग, ४।६८ । २. वही, ४१७२ । ३. सूत्रकृताङ्गः, १११२५ : भावणाजोगसुद्धष्पा जले णावाब आहिया। नावा व तीरसंपन्ना सव्वदुक्खा तिउट्टइ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy