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________________ संस्कृति के दो प्रवाह १५६ भिक्षुणियों का भी उल्लेख है । इससे भी श्वेताम्बरों का सम्बन्ध सूचित होता है, क्योंकि वे ही स्त्रियों को संघ प्रवेश का अधिकार देते हैं ।" " डा० वासुदेव उपाध्याय के अनुसार - " ईसवी सन् के आरम्भ से मथुरा के समीप इस मत का अधिक प्रचार हुआ था । यही कारण है कि कंकाली टीले की खुदाई से अनेक तीर्थङ्कर प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। उन पर दानकर्त्ता का नाम भी उल्लिखित है । वहां के आयागपट्ट पर भी अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें वर्णन है कि अमोहिनी ने पूजा निमित्त इसे दान में दिया था- अमोहिनिये सहा पुत्रेहि पालघोषेन पोठघोषेन । धनघोषन आर्यवती ( आयागपट्ट) प्रतिथापिता ।। "वह लेख 'नमो अरहतो वर्धमानस' जैन मत से उसका सम्बन्ध घोषित करता है ।" ।'” ! डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने मथुरा के एक स्तूप, जो जैन आचार्यों द्वारा सुदूर अतीत में निर्मित माना जाता था, की प्राचीनता का समर्थन किया है । उन्होंने लिखा है - ' तिब्बत के विद्वान् बौद्ध इतिहास के लेखक तारानाथ ने अशोककालीन शिल्प के निर्माताओं को 'यक्ष' कहा है और लिखा है कि मौर्यकालीन शिल्पकला यक्षकला थी । उससे पूर्व युग की कला देव निर्मित समझी जाती थी । अतएव 'देव निर्मित' शब्द की यह ध्वनि स्वीकार की जा सकती है कि मथुरा का 'देव निर्मित' जैन स्तूप मौर्यकाल से भी पहले लगभग पांचवीं या छठी शताब्दी ईसवी पूर्व में बना होगा। जैन विद्वान् जिनप्रभसूरि ने अपने विविधतीर्थकल्प ग्रन्थ में मथुरा के इस प्राचीन स्तूप के निर्माण और जीर्णोद्धार की परम्परा का उल्लेख किया है। उसके अनुसार यह माना जाता था कि मथुरा का यह स्तूप आदि में सुवर्णमय था । उसे कुबेरा नाम की देवी ने सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्व की स्मृति में बनवाया था । कालान्तर में तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के समय में इसका निर्माण ईंटों से किया गया । भगवान् महावीर की सम्बोधि के तेरह सौ वर्ष बाद वप्प महसूरि ने इसका जीर्णोद्धार कराया । इस उल्लेख से यह ज्ञात होता है कि मथुरा के साथ जैन धर्म का सम्बन्ध सुपार्श्व तीर्थङ्कर के समय में ही हो गया था और जैन लोग उसे अपना तीर्थ मानने लगे थे । पहले यह स्तूप केवल मिट्टी का रहा होगा, जैसा कि मौर्य काल से पहले के बौद्ध स्तूप भी हुआ करते थे । उसी प्रकार स्तूप का जब पहला जीर्णोद्धार १. हिन्दू सभ्यता, पृ० २३५ । २. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० १२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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