SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ संस्कृति के दो प्रवाह के आधार पर भगवान् महावीर ने सब प्राणियों के शरीरों और विचारों को छह वर्गों में विभक्त किया । उस वर्गीकरण को 'लेश्या' कहा जाता है (१) कृष्णलेश्या, (३) कापोतलेश्या, (५) पद्मलेश्या और (२) नीललेश्या, (४) तेजोलेश्या, (६) शुक्ललेश्या। डा. हर्मन जेकोबी के अभिमत की समीक्षा डा० हर्मन जेकोबी ने लिखा है- 'जैनों के लेश्या के सिद्धान्त में और गोशालक के मानवों के छह भागों में विभक्त करने वाले सिद्धान्त में समानता है। इसे पहले पहल प्रो० ल्यूमेन ने पकड़ा, किन्तु इस विषय में मेरा विश्वास है कि जैनों ने यह सिद्धान्त आजीवकों से लिया और उसे परिवर्तित कर अपने सिद्धान्तों के साथ समन्वित कर दिया। मानवों का छह भागों में विभाजन गोशालक के द्वारा नहीं, किन्तु पूरणकश्यप के द्वारा किया गया था। पता नहीं प्रो० ल्यूमेन और डा० हर्मन जेकोबी ने उसे 'गोशालक के द्वारा किया हआ मानवों का विभाजन' किस आधार पर माना ? पूरणकश्यप बौद्ध साहित्य में उल्लिखित छह तीर्थङ्करों में से एक हैं।' उन्होंने रंगों के आधार पर छह अभिजातियां निश्चित की थीं१. कृष्णाभिजाति-क्रूर कर्म वाले सौकरिक, शाकुनिक आदि जीवों का वर्ग। २. नीलाभिजाति-बौद्ध-भिक्षु तथा कुछ अन्य कर्मवादी, क्रियावादी भिक्षओं का वर्ग । ३. लोहिताभिजाति--एकशाटक निर्ग्रन्थों का वर्ग । ४. हरिद्राभिजाति-श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । ५. शुक्लाभिजाति-आजीवक श्रमण-श्रमणियों का वर्ग । ६. परमशुक्लाभिजाति-आजीवक आचार्य--नन्द, वत्स, कृश, सांकृत्य, मस्करी गोशालक आदि का वर्ग ।' आनन्द ने गौतम बुद्ध से इन छह अभिजातियों के विषय में पूछा तो उन्होंने इसे 'अव्यक्त व्यक्ति द्वारा किया हुआ प्रतिपादन' कहा। इस वर्गीकरण का मुख्य आधार अचेलता है। इसमें वस्त्रों के अल्पी १. Sacred Books of the East, Vol. XLY, Introduction. p. Xxx. २. अंगुत्तरनिकाय, ६।६।३, भाग ३, पृ० ६३ । ३. दीघनिकाय, ११२, पृ० १६,२० । ४. अंगुत्तरनिकाय, ६।६।३, भाग ३, पृ० ६३-६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy