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________________ ७६ सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल मैं इस अहिंसा अणुव्रत की सुरक्षा के लिए वध, बंधन, अंग-भंग, अतिभार आरोपण, खाद्य-पेय-विच्छेद और आगजनी जैसे क्रूर कर्मों से बचता रहूंगा। हिंसा दो प्रकार की होती है-१. आरम्भजा, २. संकल्पजा। अहिंसा अणुव्रत में केवल संकल्पजा हिंसा का त्याग किया जाता है। इसलिए यह स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान है। अहिंसा को ही दृष्टि में रखकर जैन परम्परा ने ऐसे व्यवसायों का भी निषेध किया जो प्राचीन काल में प्रचलित थे किंतु जिनका करना जैन दृष्टि से एक गृहस्थ के लिए उचित नहीं था। यह व्यवसाय कर्मादान कहलाते हैं और इनका विवरण इस प्रकार है:१. अंगारकर्म-अग्निकाय के महाआरंभ वाला कार्य । २. वनकर्म-जंगल को काटने का व्यवसाय | ३. शाकटकर्म-वाहन चलाने का व्यवसाय । ४. भाटककर्म-किराये का व्यवसाय । ५. स्फोटकर्म-खदान, पत्थर आदि फोड़ने का व्यापार । ६. लाक्षावाणिज्य-लाख, मोम आदि का व्यापार । ७. रसवाणिज्य–घी, दूध, दही तथा मद्य, मांस आदि का व्यापार । ८. विषवाणिज्य-कच्ची धातु, संखिया, अफीम आदि विषैली वस्तु तथा अस्त्र-शस्त्र आदि का व्यापार। ६. केशवाणिज्य-चमरी, गाय, घोड़ा, हाथी तथा ऊन एवं रेशम आदि का व्यापार। १०. यंत्रपीलन कर्म-ईख, तिल आदि को कोल्हू में पीलने का धंधा । ११. निलांछन कर्म-बैल आदि को नपुंसक करने का धंधा। १२. दावानलकर्म-खेत या भूमि को साफ करने के लिए आग लगाना तथा जंगलों में आग लगाना। १३. सरद्रहतड़ागशोषण-झील, नदी, तालाब आदि को सुखाना। १४. असतीजनपोषण-दास, दासी, पशु, पक्षी आदि का व्यापारार्थ पोषण करना। १५. दन्तवाणिज्य-हाथी दांत, मोती, सींग, चर्म, अस्थि आदि का व्यापार। वस्तुतः जैन परम्परा ने अहिंसा की इतनी व्यापक व्याख्या की कि उसके अन्तर्गत उन न करने योग्य गतिविधियों का भी समावेश हो गया जिन्हें सामान्यतः हम हिंसा के अन्तर्गत नहीं मानते। ऐसी गतिविधियों का उल्लेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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