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________________ ७८ महाप्रज्ञ-दर्शन नहीं जुड़ता। अणुव्रत गृहस्थ के लिए है। गृहस्थ को आध्यात्मिक जीवन के साथ सामाजिक जीवन भी जीना होता है इसलिए उसके आचार में, जिसे श्रावकाचार कहा जाता है, अनेक ऐसे बिंदु आ जाते हैं जो सामाजिक पक्ष का भी स्पर्श करते हैं। जैसाकि हम पहले ही कह चुके हैं, श्रावक के पांच मुख्य व्रत सामाजिक संदर्भ से जुड़े हैं। अहिंसा __ जैन परम्परा में अहिंसा की अवधारणा का सूक्ष्म विश्लेषण हुआ जिसके अन्तर्गत हिंसा के बाह्य पक्ष को द्रव्य हिंसा और आन्तरिक पक्ष को भावहिंसा कहा गया। हिंसा का संबंध केवल मारने से न लेकर यह लिया गया कि पांच इन्द्रियों, मन, वाणी और शरीर, आयु तथा श्वास-प्रश्वास में किसी भी प्रकार की बाधा डालना हिंसा है। हिंसा की यह व्यापकतम परिभाषा है जिसके अन्तर्गत हम विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी मान्यता देते हैं। जितना बुरा हिंसा करना है उतना ही बुरा हिंसा करवाना या हिंसा का अनुमोदन करना है। पूर्ण रूप से हिंसा से केवल साधु ही बच सकता है। गृहस्थ को अपनी आजीविका के लिए जो व्यवसाय अपनाना पड़ता है उसमें होने वाली हिंसा उद्यमी हिंसा कहलाती है। भोजन पकाने आदि में होने वाली हिंसा आरंभी हिंसा और आत्मरक्षा के लिए की जाने वाली हिंसा विरोधी हिंसा कहलाती है। गृहस्थ इन तीन प्रकार की हिंसाओं को कम से कम करने का प्रयत्न कर सकता है, किंतु उन्हें सर्वथा नहीं छोड़ सकता। सर्वथा वह केवल संकल्पी हिंसा को छोड़ सकता है, जिसका अभिप्राय है पीड़ा देने के भाव से निरपराध प्राणी को निष्प्रयोजन पीड़ित करना। अर्थात् वह अनर्थ या व्यर्थ की हिंसा से बचता है, . जिसे अनर्थ दण्ड विरमण व्रत कहा जाता है। ___ अहिंसा का व्यावहारिक रूप अहिंसा व्रत के अतिचारों से स्पष्ट होता है। अहिंसा व्रत के पांचों अतिचारों का संबंध पशुओं के प्रति मानवीय व्यवहार से है। अहिंसा अणुव्रत का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है. मैं स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं/करती हूं। . मैं आजीवन निरपराध त्रस प्राणी की संकल्पपूर्वक हत्या न स्वयं करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा, मन से, वचन से, काया से। मैं विशेष रूप से मनुष्य को बलात् अनुशासित करने, आक्रमण करने, उसे पराधीन बनाने, अस्पृश्य मानने, शोषित और विस्थापित करने का परित्याग करता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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