SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाप्रज्ञ-दर्शन हैं, कुण्ठित हैं, उन्हें जागृत करते हैं। शरीर का प्रत्येक कण चित्त के निर्देश को स्वीकार करने के लिए तत्पर है कि वह जाग जाए और मन के साथ उसका संबंध सूत्र जुड़ जाए। किंतु जब जागने का प्रयत्न नहीं होता तब वह मूर्छा में रह जाते हैं और ऐसी स्थिति में चित्त का निर्देश पहुंच नहीं पाता, वे निष्क्रिय ही बने रह जाते हैं। स्थूल शरीर के भीतर तैजस और कर्म ये दो सूक्ष्म शरीर हैं, उनके भीतर आत्मा है। स्थूल शरीर की क्रियाओं और संवेदनों को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तैजस और कर्म शरीर को देखने लग जाता है। शरीर प्रेक्षा के दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है। जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन की ओर आगे बढ़ता है वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है। शरीर प्रेक्षा का अभ्यास इसलिए करते हैं कि कोई ऐसी घटना घटित हो जाए जिससे शरीर के भिन्न अपने चैतन्य का बोध हो जाए, उसकी झलक मिल जाए। शरीर को देखते-देखते प्राण का प्रवाह पकड़ में आ जाए। प्राण के प्रवाह को देखते-देखते सूक्ष्म शरीर के प्रकम्पन पकड़ में आ जाए और उसके आगे सूक्ष्मतम कर्म शरीर के प्रकम्पन अनुभव में आने लग जाए। चैतन्य के स्पंदन भी अज्ञात न रहें। जब आनन्द का वह महास्रोत हमारे पकड़ में आ जाता है तब बाहर का जगत फीका लगने लग जाता है। हमारी समस्याएं इसलिए उभरती हैं कि हम बाहय जगत में अधिक जीते हैं, आंतरिक जगत में जीने का प्रयास नहीं करते। जब तक भीतर के दरवाजे नहीं खुलते तब तक हमारी अपार संपदा का भान नहीं होता। भीतर के शब्द इतने सुखद हैं, भीतर की गंध इतनी मीठी है, भीतर का रूप इतना मोहक है, इनका हमें तब तक अनुभव नहीं होता, जब तक हम भीतरी दरवाजों और खिड़कियों को खोल नहीं देते। जब तक भीतर के शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श और आनन्द का अनुभव नहीं होता, तब तक आदमी कितना ही पढ़े, ज्ञान करे, सुने, उसका आकर्षण बाह्य जगत् में ही होगा। इस आकर्षण को तोड़ा नहीं जा सकता। धर्म का कितना ही उपदेश सुने, धर्म के क्रियाकाण्डों की उपासना करे, किंतु जब तक भीतर का जागरण घटित नहीं होगा, भीतर की झलक नहीं मिलेगी, तब तक आकर्षण बाहर ही जाएगा, भीतर नहीं। कान की बात कान तक पहुंच कर रह जाएगी, और मस्तिष्क के तंतुओं को झंकृत कर समाप्त हो जाएगी। वह भीतर तक नहीं पहुंच सकेगी। भीतर का साम्राज्य अनोखा है, उसका अपना सिद्धान्त है, नियम है, अनुभव है, उसकी व्याख्या और परिभाषा दूसरी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy