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________________ ४६ महाप्रज्ञ उवाच को पकड़ा है? नहीं, इन्हें जानने का प्रयत्न कौन करे? प्राण के नीचे जो चेतना की सक्रियता है, चेतना का प्रवाह है, आदमी कभी उस ओर ध्यान नहीं देता। शरीर प्रेक्षा इसलिए नहीं की जाती कि रंगरूप को देखा जाए, पर इसलिए की जाती है कि इस मांस और चमड़ी के पुतले के भीतर जो प्राण और चेतना का प्रवाह है, उससे सम्पर्क स्थापित हो। उसका साक्षात् अनुभव करने का एक उपाय है-शरीर प्रेक्षा । यह समाधि तक पहुंचने का उपाय है। हम इस उपाय का आलम्बन कर लें। चेतना के बाह्यतम स्तर से प्रारम्भ कर, हम क्रमशः भीतर से भीतर गहरे में उतरें। अर्थात् हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलें। पहले शरीर के स्थूल कम्पनों का साक्षात्कार करें। फिर शरीर के भीतर होने वाले सूक्ष्म परिणामों का साक्षात्कार करें, रसायनों का साक्षात्कार करें। शरीर को संचालित करने वाली विद्युत् का साक्षात्कार करें, फिर उन सबको संचालित करने वाली प्राण-धारा का साक्षात्कार करें। जब इन सबका साक्षात्कार करते हैं, तो सूक्ष्म शरीर का साक्षात्कार होने लग जाता है। उसके पश्चात् अतिसूक्ष्म-शरीर में होने वाले प्रकम्पनों का भी साक्षात्कार होने लगता है; कर्म-संस्कारों का साक्षात्कार होने लग जाता है । अन्ततोगत्वा चैतन्य का साक्षात्कार होता है, आत्मा का दर्शन होता है। शरीर को तब देख सकते हैं जब शरीर-प्रेक्षा का अभ्यास करें। जो व्यक्ति शरीर-प्रेक्षा का अभ्यास नहीं करता, वह शरीर को नहीं देख सकता। एक-एक अवयव पर चित्त को ले जायें। बाहर और भीतर चित्त को टिकायें, एकाग्र करें। शरीर के भीतर जो प्राण के प्रकम्पन हैं उनकी प्रेक्षा करें, उनको देखें। शरीर का जितना आयतन है, उतना ही आत्मा का आयतन है। जितना आत्मा का आयतन है उतना ही चेतना का आयतन है। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के कण-कण में चैतन्य व्याप्त है। इसलिए शरीर के प्रत्येक कण में संवेदन होता है। संवेदन से चित्त अपने स्वरूप को देखता है, अपने अस्तित्व को जानता है, और अपने स्वभाव का अनुभव करता है। शरीर में होने वाले संवेदन को देखना, चैतन्य को देखना है। उसके माध्यम से आत्मा को देखना शरीर के स्थूल और सूक्ष्म स्पंदनों को देखते हैं, शरीर के भीतर जो कुछ है उसे देखने का प्रयत्न करते हैं। हमारी कोश-स्तरीय चेतना, जो हर कोश के । पास है, उसे हम प्रेक्षा के द्वारा जागृत करते हैं। चेतना के जो कोश सोए हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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