SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ० ० ० ० मा ० ० ० ० अन्तरायाधिकरणे शारीरिकबाधापदः ३२३ ० मानसिकान्तराया इत्यधिकृत्य ० दौर्मनस्यम् ० दुःखम् ० तच्च कल्पना-अभाव-वियोग-परिस्थिति-जन्यम् रागद्वेषौ च बहिर्मुखता च दुःख दौर्मनस्य-ये चंचलता के परिणाम हैं। राग और द्वेष विचारों के घटक हैं। मैंने दुःख को चार भागों में विभक्त किया है- १. कल्पनाजनित २. अभावजनित ३. वियोगजनित ४. परिस्थितिजनित दुःख । दुःख का मुख्य हेतु है-बहिर्मुखता। ० विषयासक्तिश्च ० कषायाश्च तत्त्वसंशयश्च आत्माज्ञानञ्च प्रमादश्च अध्यात्म की भाषा में वृत्तियाँ पांच हैं१. विषय का आवेश २. कषाय का आवेश ३. तत्त्व की अश्रद्धा ४. आत्मा का अज्ञान ५. प्रमाद। ० विचाराश्च ० ते च परिवेशोद्भवाः ये विचार क्यों आते हैं ? ये विचार कहाँ से आते हैं? यह खोजना चाहिए। विचार के परमाणु आकाश-मंडल में चक्कर लगाते रहते हैं। अरबों-खरबों व्यक्तियों के विचार आज भी आकाश-मण्डल में व्याप्त हैं। जब व्यक्ति इन विचारों की रेंज में आता है तब उसके मन में भी यह विचार उत्पन्न हो जाता है और वह विचार उस व्यक्ति का बन जाता है। हम यह न मानें कि हम जो सोचते हैं वे सब हमारे विचार होते हैं। वे हमारे विचार नहीं होते, वे दूसरों के विचार होते हैं। हम दूसरों के विचारों का भार ढोते हैं। ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy