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________________ ३२२ महाप्रज्ञ-दर्शन निरन्तर अशांति रहे, संघर्ष रहे और व्यक्ति ध्यान भी करता जाए, मनोगुप्ति और वचनगुप्ति भी करे, मौन भी करे तो क्या प्रयोजन? उनका फलित क्या होगा? ऐसी स्थिति में इन प्रयोगों का अर्थ भी कम हो जाता है। कलह का चौथा कारण है-स्वार्थवृत्ति। जहाँ स्वार्थ टकराता है वहाँ कलह पैदा हो जाता है। मौन से इसको टाला जा सकता है। कलह का पांचवाँ कारण है-सच्चाई का ज्ञान न होना, यथार्थ की जानकारी न रहना । सच्चाई को न जानने के कारण गलतफहमी रहती है और इससे कलह उभर आता है। ० अहङ्कारश्च अहंकार की भी पारिवारिक विघटन में कम भूमिका नहीं है। एक व्यक्ति समूचे परिवार की स्थिति को गड़बड़ा देता है। अहंकारी व्यक्ति दूसरे की बात को सुनता भी नहीं है, मानता भी नहीं है। ० लोभश्च सामुदायिक चेतना के न जागने में, पारिवारिक विघटन में लोभ का हाथ भी कम नहीं है। ० आवेशाश्च जब तक हम तीन प्रकार के आवेश-क्रोध का आवेश, अहंकार का आवेश, लोभ के आवेश को कम करना नहीं जानते तब तक सामुदायिक जीवन की बात सोची नहीं जा सकती। ० विपरीतदिनचर्या च आज का आदमी या तो उठते ही चाय पीना पसंद करता है, अखबार देखना पसंद करता है या फिर रेडियो सुनना पसंद करता है। अखबार में उसे निषेधात्मक भावों को जगाने की सामग्री अधिक मिलती है और तब आदमी का मन पूरे दिन तक उन्हीं की उधेड़बुन में बीत जाता है। आज के अखबारों में मारकाट, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, लूट-खसोट या एक्सीडेंटों के समाचार अधिक होते हैं। वह रोमांचकारी घटनाओं से भरा रहता है। ये सारी निषेधात्मक भावों की घटनाएं हैं और ये घटनाएं पढ़ने वालों में निषेधात्मक भावों की सृष्टि करती हैं। आदमी पूरे दिन उन्हीं के प्रभावों में रहता है। आज के आदमी का यह है प्रभु-भजन, यह है आलोचना की प्रक्रिया और यह है ओंकार का जप। ० असंविभागश्च उपभोग का सामाजिक न्याय है-संविभाग, बांट-बांट खाना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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