SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ર૬૧. रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे साधनापादः स्मृति और दूसरों के मनोभावों को जानने की जितनी क्षमता होती है, वैसी क्षमता बहुत सारे मनुष्यों में भी नहीं होती। ० आत्मा कषायोऽध्यवसायश्च स्थूलशरीरात्परतराः आत्मा, कषाय-तंत्र और उसके बाद अध्यवसाय का तंत्र है। यहाँ तक . स्थूल शरीर का कोई संबंध नहीं रहता। ० शब्दशून्योऽर्थस्पर्शो दर्शनम् दर्शन तब जब अर्थ का स्पर्श हो, शब्द का स्पर्श न हो। ० रागद्वेषविकल्पशून्यं दर्शनम् दर्शन प्रियता-अप्रियता आदि से शून्य। ० बाह्याभिमुखं ज्ञानमन्तरभिमुखं दर्शनम् __ ज्ञान है बाह्य केन्द्रित चेतना और दर्शन है आत्म केन्द्रित चेतना। ० दर्शनज्ञाने स्वस्वरूपम् दर्शन और ज्ञान आत्मा का सहज स्वरूप । ० विवेचनं विवेकः विवेक का अर्थ है विवेचन करना, पृथक् करना, अलग-अलग करना। ० भावक्रियाप्रवणोऽप्रमत्तो ध्यानी ध्यानी होने का अर्थ है-सतत अप्रमत्त रहना, सतत जागृत रहना, सतत भावक्रिया में संलग्न रहना। जिसकी मूर्छा टूट गई वह है ध्यानी। एकाग्रता है प्रतिशोधक शक्ति । ० निर्मलीकरणमनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा है सफाई। ० विषविसर्जनं शरीरप्रेक्षा शरीर प्रेक्षा है विष विसर्जन। ० लक्ष्यरूपेण परिणमनं तन्मयता तन्मूर्ति ध्यान है-लक्ष्य रूप में स्वयं का परिणमन। ० उदासीनदर्शनज्ञाने ध्यानम् ध्यान है उदासीन दर्शन। उदासीन ज्ञान ध्यान है। ० अन्तरतमेक्षणं प्रेक्षा प्रेक्षा है-भीतर की गहराई में देखना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy