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________________ [ यत्किंचित तीर्थंकर गोत्र कर्मबंध के बीस स्थानकों में एक स्थान है-पुनः-पुनः श्रुतज्ञान की आराधना/प्रभावना करना। जो साधक परम एकनिष्ठ भावपूर्वक श्रुतज्ञान की आराधना-साधना में लीन रहता है वह कभी उत्कृष्ट रसायन आने पर संसार का सर्वश्रेष्ठ लोकोत्तर पद भी प्राप्त कर लेता है। यह वीतराग सर्वज्ञ पुरुषों का कथन है। श्रुत समुपासना के क्षेत्र में अनेक यशस्वी नामों की श्रृंखला में श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी का नाम जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। नौ वर्ष की लघुवय से ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में जुटकर ६८ वर्ष की अवस्था तक लगभग ६ दशक तक समर्पित भाव से एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ते गये, बढ़ते गये और अपनी साधना के शिखर तक पहुँचने में सफल हुए। उनका नाम आज भारतीय साहित्य की विशिष्टधारा जैन साहित्य के क्षेत्र में विश्व मंच पर प्रख्यात है। आचार्यश्री ने अपने जीवनकाल में बहुत अध्ययन किया, मनन किया, चिन्तन किया और उस चिन्तन-मनन को लेखनी के माध्यम से साहित्य के रूप में प्रस्तुत कर जैन साहित्य की जो अभिवृद्धि की है, वह आश्चर्यजनक कही जा सकती है। विविध विषयों पर लगभग ३५० से अधिक पुस्तकों का लेखन संपादन संशोधन कर आपश्री ने जैन साहित्य को समृद्ध किया है, तथा लाखों पाठकों की ज्ञान-वृद्धि और दर्शन-विशुद्धि से सहायक बने हैं, यह एक अटल सत्य है। आचार्यश्री ने इतिहास-दर्शन-संस्कृति-आगम-प्रवचन-चिन्तन-कथाकहानी-जीवन चरित्र आदि विषयों में जहाँ सरल और कठिन दोनों प्रकार की शैली में सैकड़ों पुस्तकों का प्रणयन किया है। वहीं कर्म सिद्धान्त जैसे अति गहन-गंभीर और सम्यक्त्व की मूल आधार भूमि पर 'कर्म-विज्ञान' नामक विशालकाय ग्रंथ की रचना की है। वह जैन साहित्य के क्षेत्र में एक अनूठी कृति कहलायेगी। नौ भागों में लगभग ४५०० पृष्ठों में प्रकाशित इस महाकाय ग्रंथ का अनुशीलन-परिशीलन करने वाला जिज्ञासु पाठक उनके प्रति बार-बार श्रद्धानत हुए बिना नहीं रहेगा। एक विषय को इतने विस्तार और सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर सचमुच आचार्य भगवंत ने एक चिरस्मरणीय कार्य किया है। __इसी प्रकार जैन आगमों पर भी आचार्यश्री ने नवीन शैली में जो लिखा है, वह अपने आप में अनूठा है। श्रमणसंघ के युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. सा. के निदेशन में आगमों का हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन प्रारंभ हुआ तब आपने आगमों पर अधिकार पूर्ण प्रस्तावनाएँ लिखने का उनका आग्रह सादर स्वीकार किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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