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________________ [ प्रकाशकीय श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर, विद्वद्मनीषी आचार्यसम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी इस युग में स्थानकवासी जैन परम्परा के एक प्रख्यात प्रज्ञापुरुष सन्त थे। आप जन्मजात प्रतिभा के धनी थे। बहुश्रुतता के साथ-साथ आप सिद्धहस्त लेखक थे। आपश्री ने जैन साहित्य के विविध विषयों पर लगभग ३५० से अधिक पुस्तकों की रचना कर एक विश्व कीर्तिमान स्थापित किया। आचार्यश्री अभी अपनी बहुमुखी प्रतिभा से और भी साहित्य सर्जन कर श्रुत-देवता के भंडार की अभिवृद्धि करते, किन्तु अकस्मात् ही आपश्री का स्वर्गवास हो गया जिससे जैन जगत् की अपूरणीय क्षति हुई। ___ आचार्यश्री ने जैन आगमों पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनाएँ भी लिखीं, जो केवल प्रस्तावना न होकर संपूर्ण आगम की सारपूर्ण समीक्षाएँ सिद्ध हुईं। इन प्रस्तावनाओं को पढ़कर संपूर्ण आगम का विषय दर्पण की भाँति प्रतिबिम्बित हो उठता है। आचार्यश्री द्वारा लिखित प्रस्तावनाओं में आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांगसूत्र एवं भगवतीसूत्र की प्रस्तावना तथा चार छेदसूत्रों की प्रस्तावना तो छप चुकी हैं। मूलसूत्रों की प्रस्तावना भी छपने की तैयारी थी, किन्तु दुर्भाग्यवश इसी बीच परमश्रद्धेय आचार्यश्री का स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास से पहले ही आचार्यश्री ने नन्दीसूत्र की अपूर्ण-प्रस्तावना को पूर्ण कर इसके संशोधन संपादन के लिए विद्वद्रल मुनि श्री नेमीचन्द जी म. को संपूर्ण सामग्री प्रेषित कर दी थी। मुनिश्री ने मनोयोगपूर्वक पांडुलिपि में आवश्यक संशोधन परिवर्धन करके पुनः आचार्यश्री की सेवा में अवलोकन हेतु भेजी। आचार्यश्री इसका पूर्ण अवलोकन कर ही नहीं पाये अचानक काल ने उनको हमसे छीन लिया। इन चारों मूलसूत्रों की प्रस्तावनाओं को पुनः व्यवस्थित रूप देने का श्रमपूर्ण सहयोग पूज्य बहन महाराज साध्वीरत्न श्री पुष्पवती जी म. ने किया। और इसके प्रकाशन में गुरुदेव के परमभक्त साहित्य प्रकाशन में एकनिष्ठभावेन सहयोगी उदारमना सुश्रावक डॉ. चम्पालाल जी देसरडा (औरंगाबाद) ने संपूर्ण अर्थ सहयोग प्रदान करके गुरुदेव के प्रति असीम श्रद्धा अभिव्यक्त की है, तथा हमारे कार्य को सहज-सम्पन्न किया है। हम उनके आभारी हैं। पुस्तक के मुद्रण में साहित्यकार श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' ने पूर्ण श्रद्धाभावपूर्वक परिश्रम किया है। इस उपक्रम में गुरुदेव श्री के एकनिष्ठ सेवाभावी अन्तेवासी श्री दिनेश मुनि जी की प्रेरणा हमारा उत्साह बढ़ाती रही है। हम आप सबके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। -चुन्नीलाल धर्मावत कोषाध्यक्ष श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, उदयपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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