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________________ द्वितीय खण्ड मोक्षमार्ग : नौ तत्त्वों का संक्षिप्त वर्णन पूरा हुआ । इनमें मुख्य तत्त्व जीव और अजीव इस तरह दो ही हैं । आस्रव जीव का कर्म-बन्धक अध्यवसाय है, बन्ध जीव और अजीव (कर्म पुदगल) का पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध है, संवर और निर्जरा (उच्च कोटि की ) आत्मा की उज्ज्वल दशा है और मोक्ष आत्मा की पूर्ण शुद्धता का नाम है । इस प्रकार आस्रवादि पाँचों तत्त्व जीव-अजीव में ही समाविष्ट हो जाते हैं । पुण्य-पाप आत्मसम्बद्ध कर्मपुद्गल हैं । पुण्यपाप का यदि बन्ध-तत्त्व में अन्तर्भाव करें तो सात तत्त्व होते हैं । जिस प्रकार नौ तत्त्वों की परम्परा है उसी प्रकार सात तत्त्वों की भी परम्परा है । आस्रव और बन्ध संसार के कारण हैं जबकि संवर और निर्जरा मोक्ष के । सत्पुण्यरूप शुभ आस्रव मोक्षप्राप्ति के साधन जुटानेवाला होने से प्रशस्त है, अतएव उसे 'धर्म'२ भी कहा जा सकता है। मोक्षार्थी के आत्मविकास के मार्ग में इन १. श्री उमास्वातिवाचकविरचित तत्त्वार्थसूत्र में सात पदार्थों का निर्देश है । २. "धर्मः शुश्रावे संवरे (निर्जरायां) चाऽन्तर्भवति ।" -श्री हेमचन्द्राचार्य, योगशास्त्र के दूसरे प्रकाश के दूसरे श्लोक की वृत्ति । "सामान्येन तावद्धर्मस्य त्रीण्येव रूपाणि द्रष्टव्यानि भवन्ति । तद्यथा-कारण, स्वभावः कार्य च । तत्र सदनुष्ठान धर्मस्य कारणम् । स्वभावः पुनर्द्विविध:-साश्रवोऽनावश्च । तत्र साश्रवो जीवे परमाणूपचयरूपः, अनावस्तु पूर्वोपचितकर्म-परमाणुविलयमात्रलक्षणः । xxx कार्य पुनर्धर्मस्य यावन्तो जीवगता: सुन्दरविशेषाः ।" -उपमितिभवप्रपञ्चकथा, प्रथम प्रस्ताव, मुद्रित पुस्तक पत्र ७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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