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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान आप के द्वारा रचित 'गणधरसार्द्धशतकम्' में भाषा सौन्दर्य की छटा कुछ अनुपम ही लगती है । यद्यपि प्राकृत भाषा माधुर्य के लिए प्रख्यात है फिर भी यदि माधुर्य को सही ढंग से सजाने वाला मिल जाय तो क्या कहना। अर्थात् प्राकृत भाषा आपको पाकर शोभायमान हुई है। जैसा कि तुलसीदास के विषय में लिखा गया है कि"कविता पा लसी तुलसी की कला" अर्थात् तुलसीदास सी कला को पाकर कविता कलायुक्त हुई । ठीक उसी प्रकार आपकी काव्य सम्बन्धी कलाओं को पाकर प्राकृतभाषा स्वयं को धन्य मानने लगी । - ८० जहाँ तक आशय शीर्षक की सार्थकता से है तो उस विषय में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ग्रन्थ के गहन अध्ययनोपरान्त भी कुछ निर्देश ऐसा नहीं मिला है कि जिससे ग्रन्थ के शीर्षक की सार्थकता सिद्ध होती है । परन्तु शीर्षक को यदि व्युत्पत्ति की दृष्टि से देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि “गणान् धारयति इति गणधराः पुनः अर्द्धेन सहितं शतकम् अतएव सार्धशतकम् " गणधरः सार्धशतकश्च" इति " गणधर सार्धशतकम्” अर्थात् ऐसी रचना जिसकी १५० गाथाओं के द्वारा जैन सम्प्रदाय के गणधरों एवं खरतरगच्छीय गुरु परम्परा एवं प्रशस्ति का वर्णन किया गया हो । यहाँ पर गणधर अर्थात् गच्छनायक, गच्छ के अधिपति अथवा आचार्य । इस प्रकार उपरोक्त व्युत्पत्ति के आधार पर शीर्षक को पूर्णरूपेण सार्थक सिद्ध किया जा सकता है। सी बात है कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति कारण के बिना नहीं होती है । तो इस ग्रन्थ की रचना का भी कोई विशिष्ट कारण अवश्य होना चाहिए । ग्रन्थ के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ग्रन्थकार का उद्देश्य था अपने सम्प्रदाय के आचार्यगणधरों एवं उनकी शिष्य परम्परा का ज्ञान समाज को पूर्णरूपेण हो सके तथा उनके जीवन चरित्र को स्तुति रूप में प्रकट करके अपने पर आचार्यों एवं गणधरों के द्वारा किये गये उपकारों के बदले कृतज्ञताज्ञापन हो सके। दूसरा उद्देश्य यह है कि गुरु एवं आचार्य परम्परारूपी अक्षत कीर्तिलता समाज के लिए पल्लवित एवं पुष्पित होती रहे । अन्य लोग भी समाज की गुरुपरम्परा से अवगत होकर ज्ञान धर्म के मार्ग पर चलकर धर्म की उन्नति में सहायक हो । श्री जिनदत्तसूरिजी की इस स्तुति की महत्ता इसलिए भी है कि इस ग्रन्थ पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं। जैसे कि (१) आचार्य श्री जिनपतिसूरिजी के शिष्य श्री सुमतिगणिजीने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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