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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान पाली नगर में राजपूत जाति के काकू और पातक ने वि.सं. ११८५ में जैन धर्म अंगीकार किया ! २६ पुगल का भाटी सोनपोल कुष्ठ रोग से ग्रसित था और पातक ने वि.सं.११८५ में जैन धर्म अंगीकार किया। पश्चिम पंजाब में मुलताननगर में मूंधरा जाति का महेश्वरी हाथीदान दीवान रहता था। उसके पुत्र को सर्प ने काट लिया, काफी उपचार पश्चात् आचार्यश्री के पास अपने पुत्र को ले गया, गुरुदेव ने मंत्रोच्चार से पुत्र को स्वस्थ किया। इस घटना से दीवान प्रभावित हो गया। उसने जैन धर्म अंगीकार किया।३८ इस प्रकार आचार्यश्रीने भिन्न भिन्न स्थानों के राजाओं को प्रतिबोधित कर जिनशासन की वृद्धि की उनको विधियुक्त, सुसंस्कारवान् बनाये। उनको हिंसा से विरक्त किया तथा सभी को भिन्नुट महाजन वंश में स्थापित किया। राजाओं ने जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया और अनेक जैन मंदिर बनवाये। युगप्रधान पद प्राप्ति : __ आचार्य जिनदत्तसूरिजी अपने समय के अनन्य प्रतिभाशाली सन्त थे। उन्हें प्राप्त युगप्रधान उपाधि से भी समझा जा सकता है कि उनका स्थान कितना ऊँचा होगा। उनकी युगप्रधान पदवी के बारे में प्राचीन कृतिओं में एक विशिष्ट कथा मिलती है । खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार- नागदेव श्रावक के मन में जिज्ञासा हुई- युगप्रधान आचार्य कौन है ? इसका समाधान करने के लिये उसने गिरनार पर्वत पर तीन दिन का तेला किया। तपोबल से अम्बिका देवी प्रगट हुई । देवी ने श्रावक की हथेली पर प्रशस्तिरूप “युगप्रधान' नाम अंकित किया। “जो पढ़ेगा उसे युगप्रधान जानना" नागदेव अनेक आचार्यों के पास घूमता-घूमता अन्त में पाटन आया । पाटन मे जिनदत्तसूरि के सामने हाथ रखा । पूज्यश्री ने स्वप्रशंसा देखकर हथेली पर वासक्षेप डालकर अक्षरों को स्फुटित किया। और पास में बैठे शिष्य को निर्देश किया। तब शिष्य ने श्लोक पढ़कर सुनाया। ४० "दासानुदासा इव सर्वदेवा, यदीय पादाब्जतले लुठन्ति। मरुस्थली-कल्पतरुः स जीयात् युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः॥" दादा जिनदत्तसूरि चरित्र एवं पूजा विधि-श्री धर्मपाल जैन, पृ.११ वही पृ. १२ वही पृ.१३ खरतरगच्छ पट्टावली-३ जिनविजयजी, पृष्ठ-५० वही-२, पैरे.- ४४, पृष्ठ २६ ३९. ४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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