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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ५५ पुनः निवेदित किया- मेरे योग्य कार्य सेवा फरमाइये । श्रावक पास में खड़े थे । उन्होनें निवेदन किया- राजन ! एक देवमंदिर निर्माण के लिये भूखण्ड की आवश्यकता है । राजा ने अजमेर में दक्षिण दिशा की और पर्वत के पास में भूखण्ड दे दिया । २९ श्रावकों उस स्थान पर मंदिर बनवाया । ३० तत्पश्चात् • आचार्य श्री त्रिभुवन गिरी पधारे । उस समय त्रिभुवन गिरी पर यादव वंशी राजा कुमारपाल था । वह सूरिजी की विद्वत्ता से प्रभावित हुआ। आचार्यश्री का अमृतमय उपदेश सुनकर उनका भक्त बना। उसने शांतिनाथ भगवान का विधि-चैत्य बनवा कर आचार्यश्री के द्वारा प्रतिष्ठा करवाई । कुमारपाल महाराजा के प्रतिबोध का वर्णन " गुरु-गुण--षट्पद" में लिखा गया है । ३१ वि.सं. १९७० में चन्देरी के राजा खरहत्थ सिंह राठौर ने गुरुदेव के उपदेश से दयामूल जैन धर्म को अंगीकार किया । ३२ वि.सं. १९६९ में लोद्रवपुर के भाटी राजा धर और राजधर दोनों ने भी आचार्यश्री धर्मश्रण र १२ व्रत अंगीकार किये । ३३ रत्नपुरी नरेश धनपाल ने भी आचार्यश्री को चातुर्मासिक वास कराया । और तत्त्वचर्चा से प्रभावित होकर जैन श्रावक बना । ४ धारा नगरी के राजपूत राजा पृथ्वीधर के पुत्र जीवन और सच्चु वि.सं. १९७७ में प्रतिबोधित हुए। ३५ २९. ३०. ३१. ३२. ३३. खर. बृहद् गुर्वावलि - पैरे. ३२, पृष्ठ- १६ यह त्रिभुवन गिरी, वर्तमान मे तहनगढ़ नाम से प्रसिद्ध है और करौली से लगभग २४ मील उत्तर पूर्व में स्थित है । इसे यादवराजा त्रिभुवन कुमारपाल ने बसाया था । कुमारपाल यादव वंश के थे । मुहम्मद गौरी ने सं. १२५२ में त्रिभुवनगिरी का राज्य बृद्ध राजा कुमारपाल से लिया था । इनके हाथ से त्रिभुवनगिरी निकल जाने के पश्चात् लगभग १५० वर्ष बाद इन्हीं के वंशज अर्जुनपाल ने करौली बसाई । (क) जिणि पडिबोहर कुमरपालु, नरवइ तिहुयणगिरी । पंच सत्तमुणि नेम जेण, वारिउ देसण करि ॥ ( ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री गुरु षटपद् पद्य- ४, पृ. २) इस बात की पुष्टि कर्ता जैसलमेर ज्ञान भंडार में विद्यमान ताड़पत्रिय प्रति के काष्ठफलक पर आचार्यश्री और कुमारपाल राजा का चित्र मौजूद है। दादा जिनदत्तसूरि चरित्र एवं पूजा विधि - श्री धर्मपाल जैन, पृ. ९ वही, पृ. १० ३४. वही, पृ.११ ३५. वही, पृ. १० (ख) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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