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________________ ३८ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ___ एक प्रश्न यहाँ अवश्य ही विचारणीय हो सकता है कि आचार्य ने अपने टीका-ग्रंथों के प्रारम्भ और अन्त में महावीर के साथ पार्श्वनाथ का स्मरण किया है, वह भी अधिकता से । इसलिए पार्श्वनाथ स्थापना के पश्चात् ही टीकाओं की रचना की होगी। यह दलील मानी जा सकती है और नहीं भी, क्योंकि पार्श्वनाथ स्थापना पूर्व भी वे भगवान् पार्श्वनाथ को अपना आराध्य देव समझते हो तो उनका नाम दे सकते हैं। केवल नाम से हम निश्चित करने में असमर्थ है क्योकि स्थापना के पश्चात् टीका का प्रणयन हुआ हो।"५२ आप जैनागमों के ही विद्वान नहीं थे, अपितु तर्क-शास्त्र और न्यायशास्त्र के भी प्रकाण्ड विद्वान् थे। ____ आपने अनेक विद्वान् तैयार किये । प्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्धमानसूरि, हरिभद्रसूरि, देवभद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि आदि ने आपही के पास विद्याध्यनन किया था और आपको ही वे अपना गुरु मानते थे। आचार्य अभयदेवसूरि “सर्व गच्छ मान्य" थे। उनका चरित्र खरतरगच्छ की गुर्वावलि-पट्टावलियों के अतिरिक्त आ. प्रभाचन्द्रसूरिने प्रभावक चरित में एक स्वतंत्र प्रबन्ध के रूप में ग्रथित किया है। तपागच्छीय सौधर्म की “उपदेशसप्तति'' में, “पुरातन प्रबन्ध संग्रह में, मेरुतुंगसूरि रचित स्तम्भन पार्श्वनाथ चरित्र के अन्त में भी अभयदेवसूरि की कथा दी गई है। पट्टावलियों के अनुसार अभयदेवसूरिजी का स्वर्गवास सं. ११३५ या ११३९ में कपड़वंज में हुआ। अभयदेवसूरि की प्रसिद्धि नवांगी टीकाकार के रूप में है पर उन्होनें अङ्गागमों के अतिरिक्त ग्रंथो पर टीकाएँ रची थी। एक टीका उनकी “उपाङ्ग' आगम पर है । उन्होनें स्वतंत्र ग्रंथों की रचनाएं भी की थी। साहित्य क्षेत्र में उनका विशिष्ट प्रदान टीका साहित्य है । आपके “जयतिहुअण स्त्रोत्र'' का खरतरगच्छ में सान्ध्य प्रतिक्रमण में नियमित पाठ होता है। ५२. वलभ-भारती पृष्ठ-३४-३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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