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________________ ३७ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान अभयदेवसूरि के जीवन की दूसरी घटना “स्तंभन पार्श्वनाथ प्रतिमा' को प्रकट करने की है। कहा गया है कि-टीकाएँ रचने के समय अधिक परिश्रम और चिरकाल आयबिल तप के कारण आपका शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जरित हो गया। ५० अनशन करने का विचार करने पर शासनदेवी ने कहा-कि सेढी नदी के किनारे खोखरा पलाश के नीचे भगवान पार्श्वनाथ की स्वयम्भू प्रतिमा है। उस प्रतिमा के आगे भक्ति भाव से स्तवना करो, आपकी स्तवना से वह प्रतिमा प्रकट होगी। उस प्रतिमा के स्नानजल से आपकी सारी व्याधि मिट जाएगी। सेढी नदी के पार्श्ववर्ती स्थान खोखरा पलाश में पहुँचकर “जयतिहुअणवर'' इत्यादि नूतन ३२ पद्यों से पार्श्वनाथ की स्तुति की। ५९ इसी स्तोत्र के प्रभाव से पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट हुई, और आचार्यश्री का रोग शान्त हुआ। वही मूर्ति आज खंभात मंदिर में मौजूद है। सुमतिगणि रचित गणधरसार्द्धशतक बृहद्वृत्ति, जिनपालोपाध्याय कृत युग. गुर्वावलि, जिनप्रभसूरि कृत "विविध तीर्थकल्प” एवं सोमधर्मरचित “उपदेश-सप्तति' के अनुसार पार्श्वनाथ प्रतिमा का प्रकटीकरण होने के पश्चात् नवाङ्गी टीका रची गई थी। और प्रभावक-चरित्र, प्रबन्ध-चिन्तामणि व पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह के अनुसारनवाङ्गी टीका पूरी होने के बाद प्रतिमा का प्रकटन हुआ। इन दोनों कार्यों में से प्रथम कौन सा कार्य हुआ ? इस पर विचार करना आवश्यक है । वल्लभभारती अनुसार - “वह समय चमत्कार का था । प्रतिमा का प्रकटीकरण नवाङ्गी वृत्ति रचना की अपेक्षा साधारण जनता की दृष्टि में अत्यधिक महत्त्व रखता है। साधारण व्यक्ति भी चमत्कार की जानकारी रखने में अपनी शान का अनुभव करता है, और साहित्यसृजन केवल विद्वान ही जान पाते हैं। इस दृष्टि से पार्श्वनाथ की घटना चमत्कारपूर्ण होने से पूर्व में स्थान प्राप्त कर चुकी है। वस्तुतः नवाङ्ग टीका का कार्य आचार्य ने पूर्व में किया था और आरि उल्लिखित अहर्निश जागणादि कार्यों से आचार्य व्याधि-पीडित होने पर स्तम्भनक पधारे और उसी समय वहीं पर पार्श्वनाथ प्रतिमा का प्रगटीकरण किया। ५०. आचार्य को क्या रोग था इस सम्बन्ध में सब प्रधन्धकार रोग का नाम पृथक-पृथक लिखते है। प्रभावक चरित के अनुसार रक्तविकार, उपदेश सप्ततिका के अनुसार कुष्ठरोग कुछ भी हो, चाहे रक्तविकार हो चाहे कुष्ठरोग हो यह तो निश्चित है कि आचार्य व्याधि से पिड़ित अवश्य थे। खर. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-पृष्ठ-६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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