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________________ २१६ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान को धर्मोपदेश सुनानेवाले, कपट तथा मात्सर्य भाव से निर्मुक्त ज्ञान दर्शन व चारित्र्य में अग्रणी आचार्यों के वचन पर पूर्ण श्रद्धा करें उन्हीं को अपना धर्म गुरु समझें । (४) कालस्वरूप कुलक में सम्यक्त्व प्राप्त करने वालो के लिए बताया है कि उन्हें कुगुरु एवं सुगुरु की पहचान अच्छी तरह करना चाहिए । इस ग्रन्थ में चाहिल के पुत्रों को एकता व परस्पर मिलकर रहने का उपदेश दिया है। एकता व परस्पर मिलकर रहने का उपदेश प्रत्येक के लिए अनुकरणीय. अत्यन्त मार्मिक तथा कवित्व दृष्टि से अनूठा है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के अलावा इस लघुकाय ग्रन्थ में ज्योतिष शास्त्र, विभिन्न अलंकारों का एवं कवि की चमत्कारिक भाषा का सुन्दर समन्वय मिलता है (५) सन्देहदोलावलि यह एक प्रकार की प्रश्नोत्तरी है। श्रावकों के क्रिया कलाप से उत्पन्न संशय को दूर करने के लिए सभी प्रश्नों के उत्तर उसमें भरे पड़े हैं । पौषध अनुष्ठान पर्व तिथियों में होता है । अथवा हमेशा अविधि - चैत्य में जाना चाहिए या नहीं । शीलादि का पालन करने वाले आचार्य के पास ही आलोचनादि तप करना चाहिए अथवा इससे विरुद्ध आचरण करने वाले आचार्य के पास भी ये तप किये जा सकते हैं ? १५० गाथाओं वाली कतिपय पद प्रकरण नामक ग्रन्थ का निर्माण किया गया था, वही ग्रन्थ बाद में 'संदेहदोलावली' के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। संक्षेप में इस ग्रन्थ में विधि चैत्य व अविधि चैत्य का लक्षण, सामयिकादि करने की विधि, आलोचना, तपस्याओं के करने के प्रकार, प्रासुक व अप्रासुक जल के लक्षण, व्रत प्रत्याख्यान आदि के ग्रहण स्वरूप पार्श्वस्थ शिथिलाचारी आचार्यों को वन्दन न करना तथा उत्कृष्ट द्रव्यादि लक्षणों का अनेक विधियों का, जैन शासन के प्रामाणिक व मौलिक ग्रन्थों के अनभिज्ञ मन्द बुद्धिवाले को अनायासपूर्वक ज्ञान के लिए विवेचन किया गया है। 1 (६) उपदेशकुलक में जैनसिद्धान्त के मूलभूत द्वादशांग का वर्णन है । प्रत्येक काल में एक-एक युगप्रधान आचार्य जिन के समान होता है। जो जिनागत सिद्धान्तानुसार अनुसरण करता है । रागद्वेष मोहादि के वशीभूत होकर नहीं रहता है अर्थात् इनसे मुक्त रहता है। गुणी एवं विद्वान गुरुजनों द्वारा प्रणीत पदों का व्याख्यान एवं कथना करता है। दूसरों से संचालित न होकर वह स्वयं संचालन कर्त्ता होता है। उसके (युगप्रधान आचार्य के) विद्यमान रहने पर मत्तवादि रूप तिमिर स्वतः नष्ट हो जाता है। उसकी सद् दृष्टि का कभी बाधक नहीं होता है । (७) उत्सूत्र पदोद्घाटन कुलक में बतलाया गया है कि जिस चैत्य में लिङ्गी शिथिलाचारी साध्वाभास निवास करते हैं उसे सूत्र ग्रन्थों में अनायतन कहा गया है। उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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