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________________ युगप्रधान आ. है । जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान २१५ (२) उपदेश रसायन एक उपदेशयुक्त ग्रन्थ है, जिसमें लोगों को संसार की निःसारता एवं मानवजीवन की सार्थकता का वर्णन किया गया है । मनुष्य को दुर्लभ मानव जन्म प्राप्त कर व्यर्थ नहीं खोना चाहिए किन्तु सद्गुरु की शरण प्राप्त कर दुस्तर भवसागर को पार करने का प्रयत्न करना चाहिए। कुकर्मो को यदि जिनधर्म की दीक्षा भी प्राप्त हो जाती है तो भी वह यथार्थ साधु न बनकर साध्वाभास ही बनता है। क्योंकि वह अनुचित आचरणों का परित्याग नहीं कर सकता । वह जिनशास्त्र, व्याकरण, तर्क, पुराण, धर्मशास्त्रों आदि को न जानता हुआ भी स्वयं को उनका ज्ञाता सिद्ध करता है । मिथ्या तप व उपदेश द्वारा तथा उच्छृंखल व्याख्यान द्वारा श्रावकों को पथभ्रष्ट करता है। धार्मिक तथा प्रवाह पतित द्रव्यलिंगी की चेष्टाओं का निरूपण करने के बाद विधि मार्गानुयायी धार्मिक पुरुष द्वारा आचरणीय विधियों का निरूपण किया गया है। इसमें युगप्रधान के स्वरूप का वर्णन किया गया है। युगप्रधान आचार्य वह है जो विधि चैत्यों में जिनसूत्रों की यथार्थ व्याख्या करता है । इसमें उत्तम श्रावकों के धर्म बतलाये गये हैं । जिन धर्मों के पालन करने से श्रावक अपने व्यावहारिक जीवन को शांतिमय तथा सुखमय बना सकता है। साथ ही साथ वह दूसरे भव को भी सुधार सकता है। I 1 (३) चैत्यवंदन कुलक में सर्वप्रथम तीन वासक्षेपों का विवेचन किया गया है । ये वासक्षेप श्रावक गुरु बनाते समय गुरु से ग्रहण करता है । सर्वप्रथम वासक्षेप दो प्रकार के हैं १. द्रव्य वासक्षेप, २. भाववासक्षेप । पुनः द्रव्य- वासक्षेप के दो भेद होते हैंग्रास वासक्षेप तथा प्रवाह वासक्षेप । भव्यात्माओं के मोक्षपद के प्राप्ति हेतु अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य और अनन्त सम्यक्त्व इन पाँच प्रकार के वासक्षेपों का मूल भाववासक्षेप बतलाया गया है। तथा तीन प्रकार के चैत्य-विधि चैत्य, निश्राकृत चैत्य तथा अनायतन तीन प्रकार के चैत्यों में विभक्त करके प्रथम को तीन भागों में बाँटा है । आयतन, अनिश्राकृत और विधि चैत्य । जिसमें सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्रादि गुणों का लाभ होता हैं, उसे आयतन कहते हैं । इसके बाद सम्यक्त्व स्वीकार करने वाले व्यक्ति के लिए आचरणीय धर्मों का निर्देश किया गया है। सम्यक्त्व स्वीकार करने वालों का कर्तव्य है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पाँचों अणुव्रतों का पालन करें तथा सर्वज्ञ वीतराग भगवान तीर्थंकर देव के मत को मानने वाले लोकप्रवाह से पृथक् रहते हुए भव्यात्माओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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