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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान २०३ है। जब तक मोह निद्रा का भंग नहीं होगा तब तक शिव मार्ग पाना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। यदि कोई मोहान्ध व्यक्ति सद्गुरुओं का उपदेश सुनकर जाग्रत होता है तो वह रागद्वेष पर विजय प्राप्त करके निश्चय ही मोक्ष पद को प्राप्त करता है । निश्चिततापूर्वक वे शिव सुन्दरी को भी भोगते हैं । आचार्य श्री कुगुरु एवं बनावटी वेशधारी मुनियों के वर्णन के साथ-साथ उनसे सतर्क रहने के लिए गाथा सं. ७ से ९ तक के माध्यम से कहते हैं। बहु य लोय लुंचियसिर दीसहिं पर राग-दोसिहिं सहुं विलसहिं । पढहिं गुणहि सत्थई वक्खाणहि परि परमत्थु तित्थु सु न जाणहि ॥ ७ ॥ *** तिणि वेसिणि ते चोर रिहिल्लिउ मुसहि लोउ उम्मग्गिण धल्लिउ ताहं पमत्त किवइ न छुट्टइ जो जग्गइ सद्धम्म सु वट्टइ ॥ ८ ॥ *** ते वि चोर गुरु किया सुबुद्धिहि सिववहुसंगमसुहरसलुद्धिहि । ताहि वि खावहि अप्प-उपासह छुट्ट कह वि न जिंव भवपासह ॥ ९ ॥ *** संसार में नकली साधुओं का वर्णन करते है कि- लुंचित केश वाले एवं मुंडित लोग उस समय बहुत बढ़ गये थे । परन्तु उनमें परमार्थ एवं साधुता की भावना नाम - मात्र की भी नहीं थी । वेषधारी साधुओं का व्यवहार चोरों जैसा होता था। वे सीधे-साधे एवं भोलेभाले लोगों को गलत मार्ग में ले जाकर उनको ठगते थे। Jain Education International संसारी लोग भी कुगुरुओं के चक्कर में आ करके सुरा सुन्दरयों के विलास में लग जाते थे। उनसे छूटना मुश्किल हो जाता था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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