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________________ २०२ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान मीण सणिच्छरंमि संकतइ मेसि जंति पुण वक्कु करंतइ देस भग्ग परचक्क पइट्ठा वड वड पट्टण ते पब्भट्ठा ॥ २ ॥ *** मोहनिद्द जणु सुत्तु न जग्गइ तिण उट्ठिवि सिवमग्गि न लग्गइ । जइ सुहत्थु कु वि गुरु जग्गावइ तु वि तव्वयणु तासु नवि भावइ ॥ ५ ॥ *** परमत्थिण ते सुत्त वि जग्गहि सुगुरु- वयणि जे उट्ठेवि लग्गहिं । रागदोस मोह वि जे गंज हि सिद्धि-पुरंधि ति निच्छइ भुंजहि ॥ ६ ॥ गाथा संख्या द्वितीय में - मीन राशि में शनिचर के संक्रान्त होने से देश की Jain Education International हालत खराब हो चुकी है, उपद्रव बढ़ गया है, बड़े-बड़े शहर भी नष्ट हो चुके हैं। गाथा संख्या तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम के द्वारा प्रत्येक संसारी का दुःखी होना, धर्म से विमुख होना, द्रव्यप्रेमी होकर गुरु एवं जिनभगवन्तों का अनादर करना, मोक्षमार्ग से दूर रहना उल्लिखित हैं । सद्गुरु की कृपा का वर्णन करते हुए कहते हैं : अगर परचक्रों का उपद्रव बढ़ जाय तो बड़े-बड़े शहर भी नष्ट हो जाते हैं, महान् उपद्रव होते हैं तो धर्म प्रायः लुप्त हो जाता है । वि. सं. १२ वीं सदी का सामाजिक वातावरण भी अशान्तपूर्ण था। घरों में सुख का विनाश हो गया था । ऐसी स्थिति में संसारी व्यक्तियों के लिए दुःख निवारण का एक ही साधन था । वह था सद्गुरुओं का सत्संग । लेकिन संसारी प्राणी - देव, गुरु और धर्म की उपेक्षा करते थे और धन के पीछे दौड़ लगाते थे । सद्गुरुओं के सत्संग से व्यक्ति धर्म का मर्म जान कर आत्मोत्थान कर सकता है । आचार्य श्री मोहान्ध व्यक्तियों को जाग्रत करते हुए कहते हैं कि मनुष्य मोहान्ध होकर संसार में भवभ्रमण कर रहा है, मोह की नींद में सो रहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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