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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १८१ चर्चरी ग्रंथ पर अनेक वृत्तियाँ और संस्कृत छाया सह अनुवाद उपलब्ध हैं । २७ आ. श्री जिनदत्तसूरिजी का श्वेताम्बर जैन धर्म के खरतरगच्छ सम्प्रदाय में आगमन ऐसे दुर्दिन के समय में हुआ कि जब समाज में काम, क्रोध, लोभ और मोह का साम्राज्य फैला हआ था। जैसा कि इतिहास साक्षी है प्रकृति उसका पूरक है-गहन अंधकार के बाद एक अनुपम प्रकाश की अनुभूति, हर रात्रि के बाद सूर्योदय का आगमन होना निश्चित् होता है । इस सिद्धान्त के आधार पर जैन सम्प्रदाय में प्रचलित कदाचार एवं समाजविरोधी तत्त्वों का उन्मूलन होना भी आवश्यक था। __ पूर्व चर्चा के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज में विभिन्न प्रकार के दुर्गुण बड़ी तेजी से बढ़ रहे थे। उन सभी के विनाश के लिए ही दादा साहब का आगमन हुआ। रास के विषय में पूर्व अध्यायों में चर्चा की जा चुकी है। उसमें आचार्य द्वारा रचित "उपदेश रसायन रास" की चर्चा तो खूब अच्छी तरह की गयी है। उपदेश रसायन रास को ११६१ में रचित माना गया है। और 'चर्चरी' पर “उपदेश रसायन रासः' का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। किसी भी कृति या रचना को भाषा की दृष्टि से देखने से प्रतीत होता है कि तत्कालीन भाषा का प्रभाव रचना पर अवश्य होता ही है। रचनाकार की अपनी यह विलक्षणता होती है कि वह अपनी कृति की भाषा को नवीन से नवीन एवं सुदृढ़ रूप दे कि वह समाज के लिए अधिकाधिक कल्याणकारी एवं सुबोध सरल हो । भाषा के नवीन रूप के साथ उसे यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि कृति जनमानस के लिए कहीं दुरूह तो नहीं हो रही है। विद्वान् की विद्वत्ता उसमें है कि उसके सन्देश सामान्य से भी सामान्य लोगों द्वारा ग्राह्य हों। दुरूह एवं कठिन भाषा के प्रयोग से तो वह कृति या ग्रन्थ जनसमुदाय के लिए बोझस्वरूप बन जाता है। २७. (अ) अपभ्रंश काव्यत्रयी-मूल सह संस्कृत छाया-ओरियंटल इंस्टीट्यूट,बड़ौदा, पृ.१से २७ प. पू. जिनपतिसूरिजी के शिष्य उपाध्याय श्री जिनपालजी द्वारा संस्कृत में वि.सं. ११९४ में लिखी गयी। अपभ्रंश काव्यत्रयी में यह टीका प्रकाशित है। चर्चर्यादि ग्रंथ-भाषान्तरसह-जिनहरिसागरसूरि सं. २००४ प्रकाशकजिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत, पृ. १ से १८ रास और रासान्वयी काव्य-मूल और अनुवाद, डा. दशरथ ओझा, पृ.४४५ से ४५३ (क) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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