SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान सावएहिं = (१) श्वापदैः (२) श्रावकैः यहाँ पर सावएहिं द्वयर्थक होने के कारण श्लेषालंकार है। उत्प्रेक्षा अलंकार :(१) विहिचेईहरि अविहिकरेवइ करहि उवाय बहुत्ति ति लेवइ। जइ विहिजिणहरि अविहि पयट्टइ ता घिउ सत्तुयमज्झि पयट्टइ।। २३ यहाँ पर मानों सत्तू में घी पड़ा है इस उत्प्रेक्षा होने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। दृष्टान्त-अलंकार : जिव कल्लाणयपुट्टिहि किज्जहिं तिव करिति सावय जहसत्तिहिं। जा लहडी सा नच्चाविज्जइ वट्टी सुगुरु-वयणि-आणिज्जइ ।।३२ यहाँ पर 'जिव' अर्थात् 'यथा' शब्द के द्वारा दृष्टान्त को दर्शाया गया है। अतएव दृष्टान्त अलंकार है। धम्मिय नाडय पर नच्चिजहिं भरह-सगर निक्खमण कहिज्जहिं। चक्कवट्टि-बल-रायहं चरियइं नच्चिवि अंति हुंति पव्वइयई ।। ३७ यहाँ पर नाटकों को खेलने के लिए शिक्षापरक नाटकों का निर्देश किया गया है। उसे दृष्टान्त स्वरूप ग्रहण किया गया है। अतएव यहाँ पर दृष्टान्त अलंकार है। (२) २. चर्चरी यह कृति अपभ्रंश भाषा में रची गयी है। इसमें ४७ पद्य और रासावलय छंद का प्रयोग किया गया है। इसकी रचना वाग्जड (राजस्थान)देशान्तर्गत व्याघ्रपुर नामक नगर के प्रमुख धर्मनाथ जिनालय में विक्रम की १२ वीं सदी के उतरार्द्ध में की गयी है।" जैन रास साहित्य ग्रंथ के अनुसार-चर्चरी की रचना वि.सं. ११७१ के पश्चात् मानने में कोई आपत्ति नहीं है। २६ २५. अपभ्रंश काव्यत्रयी-ओरियंटल इंस्टीट्यूट बड़ौदा. पृ.११५ २६. जैन राम साहित्य- डा. सनत्कुमार रंगाटिया, पृ.१६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy