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________________ १६७ १६७ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान गुरु-पवहणु निप्पुनि न लब्भइ तिणि पवाहि जणु पडियउ वुब्भइ । सा संसार-समुद्दि पइट्ठी जहि सुक्खह वत्ता पणट्ठी ॥ ८ ॥ जो सत्यभाषी हो, परनिन्दक जिससे दूर भागते हो, अपने ही समान सभी को समझते हैं और सभी को मोक्ष मार्ग प्रदर्शित करते हों वे सुगुरु कहलाते हैं ॥ ४ ॥ सुगुरु जहाज के समान होता है। इसलिए पुण्यहीन व्यक्ति सुगुरु को प्राप्त नहीं कर सकता । पुण्यहिन व्यक्ति चार गति चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है। जो सुखहीन हे जाता है ।। ८ ।।। प्रस्तुत श्लोकों में से चतुर्थ श्लोक में सुगुरु की महिमा एवं उसके स्वरूप को बताया गया है। जैसा कि-हिन्दी काव्य के सुप्रसिद्ध रहीमजी ने गुरु की महिमा बतलाते हुए यहाँ तक लिखा है कि सुगुरु भगवान् से भी सर्वोपरि होता है-उदाहरण स्वरूप गुरु-गोविन्द दोउ खड़े काके लागौं पाँय। ___बलिहारी गुरु आपणै गोविन्द दियो बताय ।। अर्थात् सुगुरु का स्थान भगवान से उच्च बताया गया है। सुगुरु हमेशा सत्यवादी होते हैं एवं सत्य बोलने के लिए, सत्याचरण करने के लिए ही प्रेरित करते हैं। दूसरों की निन्दा को पाप बताया गया है। इसलिए परनिन्दक पापी होते है वे हमेशा सुगुरुओं से भयभीत होते रहते हैं। क्योंकि निन्दक का स्वरूप अंधकार के समान है और सुगुरु प्रकाश के समान हैं। इसलिए बिलकुल स्पष्ट है कि प्रकाश से अन्धकार हमेशा दूर भागता रहता है। वैसे ही निन्दक सुगुरुओं से सदैव दूर भागते रहते हैं। दूसरी सबसे बड़ी विशेषता सुगुरु की यह है कि “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥" अर्थात् जो अपने लिए अनुकूल नहीं होता है वह दूसरों के लिए कभी भी प्रयोग में नहीं लाना चाहिए । संक्षेप में कहें तो अपनी इच्छा एवं अनुकूलता के समान दूसरों की भी (इच्छा एवं अनुकूलता)समझना चाहिए । सुगुरु वही है जो मोक्षमार्ग के लिए प्रोत्साहित करें और उस पर चलने का योग्य मार्ग बताये। सुगुरु के स्वरूप के स्पष्टीकरण के बाद श्लेषात्मक ढंग से अन्यान्य वस्तुओं के साथ तुलना करते हुए कहते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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