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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान उपरोक्त श्लोकों में श्री दादाजी लोगों को भगवान श्री पार्श्वनाथ एवं श्री महावीरस्वामी की वन्दना के लिए प्रेरित करते हुए मंगल कामना व्यक्त करते हुए कहते हैं कि १६६ हे सांसारिक जीव ! तीर्थंकरों को निर्मल मन से नमस्कार करो और पाप से मुक्त हो जाओ । घर व्यापार में लिप्त होकर जीवन के अमूल्य क्षण को नष्ट मत करो । इस अमूल्य जन्म के द्वारा अपनी आत्मा को सांसारिक रागद्वेष में लिप्त होने के जाय उसे मुक्त होने का उपाय करो । - प्रस्तुत श्लोक मंगलाचरण के साथ उपदेश को भी अपने में समेटे हुए हैं । आचार्यजी स्वयं भगवन्त वन्दन के साथ-साथ सभी जीवों को वन्दना के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं कि- मानवजीवन को प्राप्त करने के लिए कितने ही कष्ट सहने पड़े होंगे। इन सब के परिणामस्वरूप हे भव्य जीवो इसे पाकर आलस्य प्रमाद एवं कदाचार में मत लगाओ। कुछ ऐसा काम करो जिससे यह जीव सांसारिक दुःखों से छुटकारा पाकर अमरत्व को प्राप्त कर सके। घर, व्यापार, परिवार एवं दौलत खजाने सब यहीं रह जायेगे । कोई साथ नहीं देगा। यमराज के आगमन पर यदि कोई साथी बनने को तैयार होगा तो वह है भगवन्तों का वन्दन, शुभ आचरण और अच्छे कर्म । इसलिए अपनी आत्मा को सांसारिक रागद्वेष की परिधि से उपर उठाओ। इसकी संकीर्णता को दूर करो, इसे दुःखी मत होने दो, खुश रहो और खुशियाँ लुटाओ । यही इस जीवन की सार्थकता है । परन्तु यह भी ध्यान रहे कि इन कर्मों में कहीं धर्म के बजाय अधर्म न होजाय । अनादि काल से संसाररूपी सागर को पार करने के लिए किसी अच्छे अर्थात् सुगुरु की आवश्यकता होती है। इसका वर्णन सर्वत्र पाया जाता है। दूसरे शब्दों में कहे तो सुगुरु की महिमा का वर्णन सर्वत्र पाया गया है। इस भव से छुटकारा दिलाने में यदि कोई समर्थ है तो सद्गुरु । इस प्रकार हमारे " आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी " उसी सन्दर्भ में सुगुरु की महिमा का वर्णन करते हुए एवं उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं Jain Education International सुगुरु सु वुच्चइ सच्चउ भासइ परपरिवायि-नियरु जसु नासइ । सव्वि जीव जिव अप्पर रक्खइ मुक्ख-मग्गु पुच्छियउजु अक्खइ ॥ ४ ॥ *** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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