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________________ ११५ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से पूर्ण रूपेण स्पष्ट होता है कि इस “श्रुतस्तव" नामक रचना के द्वारा आचार्यों के द्वारा एवं गणधरों के द्वारा रचित ग्रन्थों का वर्णन एवं उसकी स्तुति की गयी है। जो श्रावक श्राविकाओं के दुःख सन्दोह को दूर करनेवाली *** ७. सप्रभाव स्तोत्र मम हरउं जरं मम हरउ विझरं डमर डामरं हरउ। चोरारि मारि वाही हरउ ममं पास तित्थ यरो ।। १॥ एगंतर निच्चजरं वेल जरं तहय सीय उण्ह जरं । तईअ जर चउत्थ जरं हरउ ममं पासतित्थयरो ॥ २ ॥ जिणदत्ताणा पालण परस्स संघस्स विहि समग्गस्स। आरोग्गं सोहगं अपवणं कुणउ : पास जिणो ।। ३ ।। (इति श्री जिनदत्तसूरि युग प्रधान कृतम् सप्रभाव स्तोत्रम्) यह स्तोत्र प्राकृत भाषा में गाथा छंद में लिखा गया है। यह स्तोत्र मूल प्रकाशित है। २४ मूल परिशिट क्रमांक १० में दिया गया है । सप्रभाव स्तोत्र महाप्रभाव स्तोत्र का नामान्तर है। स्तोत्र के रचनाकाल के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं है। इसमें ग्रंथकार ने पार्श्वनाथ भगवान से आधि, व्याधि, उपाधि का शमन करके, श्रीसंघ को आरोग्य, सौभाग्य व अपवर्ग अर्थात् मोक्ष प्रदान करने की प्रार्थना की है। इसका अनुवाद:श्लोक (१) है पार्श्व तीर्थंकर मेरे जरा, ज्वर, डमर (क्लेश), डामर (आफत), चोर-शत्रु मारी, व्याधि सभी का हरण करो !' श्लोक (२) एकान्तर ज्वर, शीत ज्वर, उष्ण ज्वर, नित्य ज्वर, तीसरे दिन का ज्वर, चतुर्थ दिन का ज्वर सभी ज्वरों का हरण करो। श्लोक (३) जिनदत्त आज्ञा का पालन करने में तत्पर, विधि के मार्ग में रहे हुए संघ को हे पार्श्व जिनेश्वर आरोग्य सौभाग्य एवं अपवर्ग दो। विशेष-इस स्तोत्र से प्राचीन महाप्रभावक स्तोत्र ‘उवसग्गहर स्तोत्र' की याद आती है। दोनों में त्रेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। २४. युगप्रधान जिनदत्तसूरि, अगरचंदजी नाहटा, पृ.१११. *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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