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________________ ११३ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान उप्पायसुद्ध मग्गेणियं च विरियाणुवायमिह तइयं । अस्थि-नत्थि पवायं नाणपवायं च पंचमय ॥१२ ।। सच्चप्पवायमायप्पवाह कम्मप्पवायमट्ठमयं। पच्चक्खाणं विज्जाणुवाय कल्लाणनामं च ॥ १३ ॥ तह पाणाउकिरियाविसालमहलोगबिंदुसारं च। उवाइय रायपसेणइज्ज जीवाभिगम नामं ॥ १४॥ पण्णवण्णोवंग सूरचंदपण्णत्ति जंबूपण्णत्ति । वंदामि निरियावलिया सुयखधं चेह पंचण्हं ।। १५ ॥ यहाँ चौदह पूर्वो के नाम बताये गये हैं१. उत्पादपूर्व प्रवाद २. अग्रायणी ३. वीर्य प्रवाद ४. अस्ति नास्ति प्रवाद ५.. ज्ञान प्रवाद ६. सत्य प्रवाद ७. आत्म प्रवाद ८. कर्म प्रवाद ९. प्रत्याख्यान प्रवाद १०. विद्यानुवाद प्रवाद ११. कल्याण प्रवाद १२. प्राण प्रवाद १३. क्रियाविशाल प्रवाद और १४. लोक बिन्दु प्रवाद उपांगे का नाम बताते हुए लिखते है - औपपातिक २. राजप्रश्नीय ३. जीवाभिगम प्रज्ञापना ५. सूर्य प्रज्ञप्ति ६. चन्द्र प्रज्ञप्ति जम्बू प्रज्ञप्ति ८-१२. निर्यावलिका आदि पाँच का समूह यहाँ पर पंच “श्रुतस्कंध' अर्थात् पाँच श्रुत स्कन्ध हैं - निर्यावलिका, पुफ्फिया, पुप्फवडेंसिया, देविंदत्थओ और चंदाविजय। वीर जिनेश्वर के हाथों से दिक्षित एवं शिक्षित स्थविरों ने चौदह हजार प्रकीर्णक की रचना की है। दसवेयालियमावस्सयं च तह ओह-पिंड-निज्जुत्ति । पज्जुसण कप्पवकप्प कप्प पणकप्प जियकप्पो । १७ ।। दशवैकालिक, आवश्यक, ओघनियुक्ति, पिंड नियुक्ति, पर्युषणाकल्प, बृहद्कल्प, पंचकल्प, जीतकल्प, महानिशीथ सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र - इन सब आचार्यकृत आगमों को वंदन करता हूँ। प्रशमरति आदि महाअर्थवाले पाँचसौ प्रकरण को वन्दन करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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