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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ८५ के पदार्थ-सार्थ का विस्तार करने में समर्थ थे। कहने का तात्पर्य है कि समयानुसार विषयों का निरूपण करने में संशयरहित थे। संशय रहितता ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। यह उपलब्धि प्राप्त करना ही जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि होती है जो आचार्य श्री में पूर्णरूपेण विद्यमान थी। जो उनके त्याग एवं तपस्या का प्रतीक है। इन्होंने अणहिलवाड़ में दुर्लभराज की सभा में प्रवेश करके नामधारी आचार्यों के साथ निर्विकार भाव से शास्त्रीय विचार किया। साधुओं के लिए “वसति निवास'' की स्थापना करके अपने पक्ष को स्थापित किया। जहाँ पर गुरुक्रमागत सद्वार्ता का नाम भी नहीं सुना जाता था उस विषम परिस्थितिवाले गुजरात प्रदेश में विचरण करके आपने वसतिमार्ग को प्रगट किया। आपकी शिष्य सन्तति अक्षय बेल (लता)के समान बढ़ी। उस शिष्य सन्तति में अनेक विद्वान, गुणगरिष्ठ, आचार्य, उपाध्याय और साधु भगवन्त हुए। इसी शिष्य परम्परा में श्री जिनेश्वरसूरिजी के प्रथम शिष्य ‘सुरसुन्दरी कथाके रचयिता बुद्धिसागरसूरिजी ‘संवेगरंगशाला' के प्रणेता श्री जिनचन्द्रसूरिजी, नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी हुए । इनके पश्चात् अपने निकट पूर्वज गुरुजनों की स्तुति एवं प्रशस्ति की है । इस प्रकार यहाँ पर स्तुति एवं प्रशस्ति के साथ-साथ इन सभी आचार्यों की ऐतिहासिक सामग्री भी इसमें पर्याप्त रूप से उपलब्ध है। (गाथा ६३ से ७७) आचार्य श्री को देव, गुरु और धर्म का स्वरूप बतानेवाले, दुःखों का अन्त करनेवाले गुरुवर्यश्री धर्मदेव उपाध्यायजी, सिंह की तरह मदरूपी हस्ति का नाश करनेवाले गुरुदेव श्री हरिसिंहगणिजी एवं श्री सर्वदेवगणिजी कवि के मनोवांछित पूर्ण करें। यहाँ पर श्री देवभद्रसूरिजी को सूर्य और चन्द्रमा से बढ़कर श्रेष्ठ बताया है : सूरससिणो वि न समा जेसिं जं ते कुणंति अत्थमणं। नक्खत्तगया मेसं मीणं मयरं पि भुंजते ॥ ८१ ।। उपरोक्त गाथा के द्वारा ग्रन्थकार की काव्यप्रतिभा का ज्ञान होता है। इस वर्णन से पता चलता है कि इस काव्यकला में वह पूर्ण निपुण है। यहाँ पर आचार्यश्री अपने गुरु देवभद्रसूरिजी को सूर्य और चन्द्रमा से भी बढ़कर मानते हैं। ये सूर्य एवं चन्द्र गुरु श्री की तुलना के योग्य नहीं हैं। क्योंकि ये सूर्य चन्द्र तो अस्त को प्राप्त होते है, राहु एवं केतु के द्वारा समय-समय पर ग्रसित होते हैं । चन्द्रमा में तो कलंक लगा हुआ है। अतः आचार्यो एवं गुरुवर्यों की तुलना की कोटि में ये कदापि नहीं आ सकते हैं। ये सन्त महात्मा तो कभी भी पतित नहीं होते हैं। ये अपनी यशोगाथाओं की आभा से स्वर्गारोहणोपरान्त भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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