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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान देवभूमि का उपयोग करनेवाले मुनियों के चारित्र में वृद्धि नहीं होती है, उसकी अपेक्षा हानि ही होती है। तो भला श्रावकों को चैत्यवास करना कहाँ तक हितावह होगा? देवस्स परिभोगो अणंत-जम्मेसु दारूण विवागो। जं देवभोग भूमि वुड्ढी ण हु वट्टइ चरित्ते': गणधर. (प्रस्तावना पृ.सं.-५४-५५) प्रस्तुत श्लोक के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मुनियों का चैत्य में निवास करना अयोग्य है । परन्तु इसके विपरीत जो लोग विधिमार्ग के नियमानुसार रहते हैं उनके लिए सुविहितमार्ग योग्य माना गया है । इसलिए वसतिमार्ग सर्वश्रेष्ट माना गया है। वसतिमार्ग की श्रेष्ठता पर विचार करते हुए कहा गया है कि अर्द्धकर्मदोष से मुक्त वसति में निवास करने से दोष नहीं होता है। जिन चैत्यों में निवास करना अत्यन्त दोष वाला कहा गया है। ऐसा मुनियों ने सिद्ध किया है। कारण कि दूसरों के घरों में निवास करना शुद्ध और योग्य है। इस वाक्य से तीर्थ का विच्छेद नहीं होता है। इसलिए चैत्यवास का जो समर्थन किया गया है वह मात्र सज्जनों को ठगने के समान है। प्रश्न उपस्थित होता है कि तीर्थ का अवच्छेद अर्थात् क्या ? क्या मुनियों के चैत्यवास से और प्रतिमादिक के अनुव्रत से तीर्थ का अवच्छेद हो जाता है ? शिष्य प्रशिष्य की परम्परा से सम्यक् ज्ञान, दर्शन चरित्र की प्रवृत्ति को तीर्थ अविच्छेद कहा जाता है ? १० इसमें से प्रथम पद तो घटता नहीं है क्योंकि चैत्यवास के विना ही भगवान की प्रतिमादिक वृत्तिमात्र देखी नहीं जा सकती है। दूसरे दर्शन की वृत्तियों को ग्रहण करने से उसी प्रकार अनुवृत्ति की उपलब्धि होती है। इसी प्रकार तीर्थ मार्गच्छेद के कार्य द्वारा मोक्षफल की प्राप्ति नहीं होती है। क्योंकि सिद्धान्त में ग्रहण की हुई जो प्रतिमा है वह भी मोक्षमार्ग का अंगरूप नहीं बन सकती है। इसलिए वसतिमार्ग उसके स्थान पर सर्वोत्तम सिद्ध होता है ।११ इस प्रकार वसतिमार्ग का प्रचार एवं प्रसार करनेवाले श्री वर्धमानसूरिजी सभी प्रकार के भ्रमों से रहित थे। अर्थात् अपने विचारों से निर्धम थे। स्वसमय और पर समय १०. __गणधर सार्द्धशतकम्-जिनकृपाचन्द्रसूरिज्ञानभंडार, इंदौर, पृ.४७ ११. वही, पृ.४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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