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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन २७ वर्धमान का समरवीर राजा की कन्या यशोदा से विवाह होता है। (दिगम्बर आम्नाय में महावीर को बालब्रह्मचारी और अविवाहित बताया गया है : जगत का विध्वंस और निर्माण, जन्म और मरण की परंपरा को देखकर उनका मन वैराग्य से भर उठता है वे सोचते हैं मैं उस पथ का पथिक बनना चाहता हूँ जो कर्मों से प्रपंच से मुक्ति की ओर ले जाता है । वर्धमान के मन का वैराग्य जानकर लोकांतिक देव उन्हें प्रेरित करते हैं और अपने बड़े भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा लेकर दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं। तीस वर्ष की अवस्था में वे घर छोड़ते हैं। दीक्षा उत्सव मनाया जाता है, धूमधाम से उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है और अशोक वन में पहुँचकर पंचमुष्ठि केशलुंचन करते हैं। उन्हें चौथा मनःपर्याय ज्ञान प्राप्त होता है। प्रभु एक योगी की कुटिया पर पहुँचते हैं और वहाँ से भी पंच अभिग्रह धारण कर सम्पूर्ण परिग्रह त्यागकर करपात्री बनकर वनमें परिषह सहते हुए तपस्या करने लगते हैं। चार मास तक अनेक परिषह सहकर वे परिषह जयी बनें । तपस्या के दौरान उनपर गोपालकों के प्रहार, शूलपाणी यक्ष द्वारा किये गये अनेक उपसर्ग होते रहें। चंडकौशिक जैसे विषधर को भी क्षमा का दान दिया जब कभी भी उन्हें निर्विघ्न आहार मिला तब पंचदिव्य प्रकट होते रहे । महावीर ने उन अनार्य प्रदेशों में लोगों के उपसर्गो को सहन किया और अपनी निर्ग्रन्थता, करूणा क्षमा से लोगों के मन जीते, उन्हें सतपथ दिखलाया । चरित्र में सुमेरु से दृढ महावीर को मायावी देवांगनायें कटपूतना यक्षणी नहीं डिगा पायी । कवि ने कटपूतना यक्षणी द्वारा दिये गये उपसर्गो का अद्वितीय चित्रण काव्य में प्रस्तुत किया है स्निग्ध श्याम सुन्दर केशों से, छिटक-छिटक जल बारम्बार । शीत समीर बहाकर करती, हास्य विनोद विलासोच्चार । निजमाया से मोहित करने लगी दिखाने अपना नाच ध्यानमग्न एकाग्र रहे प्रभु, आने दी न तनिक भी आँच ' *** भगवान को करुणा के उस तट पर पहुँच गये थे जहाँ गोशालक की तेजोलेश्या स्वयं झेल लेते हैं। संगम देव का उपसर्ग शारीरिक कष्ट सहन कर छ महिने तक सहन १. चरम तीर्थंकर महावीर : आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरि, पद सं. १०९, पृ. २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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