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________________ ३२० अने प्रेष्काणना स्वामी जो बहे के या प्रमाणे कां बे. - ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ वमे रह्या होय तो तेनुं फळ रत्नमालाजाध्यमां "वर्षमास दिनैर्गे हद्वेष्काणनवमांशपाः । राशिमानेन दास्यन्ति फलमित्याह शौनकः ॥ १ ॥” "ब के आमे स्थाने रहेलो लग्ननो स्वामी राशिने अनुसारे एटले जेटलामी राशि होय तेटली संख्यावाळा वर्षे करीने तेनुं फळ आपे वे, एज प्रमाणे प्रेष्काणनो स्वामी तेले मासे ने नवमांशनो स्वामी तेटला दिवसे करीने फळ पे वे एम शौनक कहे बे." मूळ श्लोकमां षष्ठाष्टौ कयुं छे. तेना उपलक्षणथी वारमा स्थानमा रहेलो लग्ननो स्वामी पण शुन नथी, तेथी करीने लग्ननो ने लग्नांशनो स्वामी बहे, आमे के बारमे होय तो ते शुन नथी एम सिद्ध थयुं तेनो अपवाद या प्रमाणे बे - वृश्चिक लग्न के वृश्चिकनो नवमांश ग्रहण कर्यो होय तो तेनो स्वामी मंगळ जो मेष राशिमां रह्यो होय तो कां पण दोष नथी, केमके ते बन्नेनो स्वामी ( मंगळ ) एकज बे. एज रीते वृषनुं लग्न अथवा तेनो अंश ग्रहण कर्यो होय त्यारे तेनो स्वामी शुक्र जो तुलामां रह्यो होय, तथा कुंज लग्न अथवा तेनो अंश ग्रहण कर्यो होय त्यारे तेनो स्वामी शनि जो मकरमा रह्यो होय तो बन्नेनो स्वामी एक होवाथी कांइ पण दोष नथी. कह्युं बे के"न वृश्चिकं हन्ति कुजोऽजवर्ती, वृषं न शुक्रोऽपि तुलाधरस्थः । तथैव कुंनं रविजो न हन्ति, मृगस्थितो वा तनुगं व्ययस्थः ॥ १ ॥” "मेष राशिना लग्नमां रहेलो मंगळ वृश्चिकने हणतो नथी, तुला राशिना लग्नमां रहेलो शुक्र वृषने हणतो नथी, तथा मकर राशिरूप व्यय ( १२ ) स्थानमा रहेलो मंगळ पहेला स्थानमा रहेला कुंजने होतो नथी." वळी आज युक्तिए करीने मेष के तुला राशिमां जन्मलग्न के जन्मराशि होय तो ते मेष ने तुलार्थी आवमा रहेला वृश्चिक ने वृष पण लग्नपणे ग्रहण करवामां आवे तो ते दोषने माटे नथी. ते विषे विवाहवृंदावनमां कह्युं बे के “व्यलिवृषं जननई विलग्नयोर्भवनमष्टममन्युदितं त्यजेत् ।” "जन्मराशि अने जन्मलग्नने विषे ( मध्ये ) वृश्चिक ने वृष सिवाय बीजा श्रावमा जवनरूप लग्न तजवा योग्य बे. अर्थात् वृश्चिक ने वृष ए बेज आवमा स्थानमां रहेला सारा बे." तथा Jain Education International "जन्मराशिजन्मलग्नाच्यां द्वादशमष्टमं च लग्नेशं त्यजेत् ।” " जन्मराशि छाने जन्मलग्नथी बारमो अने आम्मो लग्ननो स्वामी तजवा योग्य बे" एम पण रत्नमालाजाध्यमां कं बे. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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