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________________ प्रयोग और परिणाम - २१९ गणिका ने कहा-'धन सार्थवाह | जिसे धन की ही चिंता है । उसे मेरी उपस्थिति का भी बोध् नहीं हुआ, तब मरने का बोध कैसे होगा ?' यह सही है कि अर्थलोलुप व्यक्ति मृत्यु को नहीं देखता और जो मृत्यु को देखता है, वह अर्थलोलुप नहीं हो सकता । • अट्टमेतं पेहाए । (२/१३८) . जो अर्थार्जन में अमर की भांति आचरण करता है वह पीड़ित होता है। • अपरिण्णाए कंदति । (२/१३९) अर्थ-संग्रह का त्याग नहीं करने वाला क्रन्दन करता है । • आरतं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण, इत्थियाओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता । (२/५८) मनुष्य रंग-बिरंगे मणि, कुंडल, हिरण्य और स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त हो जाते हैं। • ण एत्थ तथो वा, दमो वा, णियमो वा दिस्सति । (२/५९) परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न शांति और न नियम | २९. आस्रव • एत्थोवरए तं झोसमाणे अयं संधी ति अदकखु । (५/२०) इस अर्हत् शासन में स्थित साधक शरीर को संयत कर यह कर्म-विवर (आस्रव) है, ऐसा देखकर आस्रव को क्षीण करता हुआ प्रमाद न करे । • आसं च छंदं च विगिंच धीरे । (२/८६) हे धीर ! तू आशा और स्वच्छंदता को छोड़ । • तुमं चेव तं सल्लमह? । (२/८७) उस आशा और स्वच्छंदता के शल्य का सृजन तूने ही किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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