SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ जैन योग • तम्हा संग ति पासह । ( ६ / १०८ ) तुम आसक्ति को देखो । 'संग' शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं -आसक्ति, शब्द आदि इन्द्रिय-विषय और विघ्न । आसक्ति को छोड़ने का उपाय है- आसक्ति को देखना । जो आसक्ति को नहीं देखता, वह उसे छोड़ नहीं पाता । भगवान् महावीर की साधना-पद्धति में जानना और देखना अप्रमाद है, जागरूकता है, इसलिए वह परित्याग का महत्त्वपूर्ण उपाय है । जैसे-जैसे जानना और देखना पुष्ट होता है, वैसे-वैसे कर्म - संस्कार क्षीण होता है। उसके क्षीण होने पर आसक्ति अपने-आप क्षीण हो जाती है । 1 • गथेहिं गढिया णरा, विसण्णा कामविप्पिया । (६/१०९) परिग्रह में आसक्त और विषयों में निमग्न मनुष्य काम से बाधित होते हैं | २८. अपरिग्रह अमरायइ महासडढी । (२/१३७) काम और उसके साधनभूत अर्थ में जिसकी महान् श्रद्धा होती है, वह अमर की भांति आचरण करता है । राजगृह में मगधसेना नाम की गणिका थी । वहां धन नाम का सार्थवाह आया । वह बहुत बड़ा धनी था । उसके रूप, यौवन और धन से आकृष्ट होकर मगधसेना उसके पास गयी । वह आय और व्यय का लेखा करने में तन्मय हो रहा था । उसने मगधसेना को देखा तक नहीं । उसके अहं को चोट लगी । वह बहुत उदास हो गयी । मगध सम्राट जरासंध ने पूछा- 'तुम उदास क्यों हो ? किसके पास बैठने से तुम पर उदासी छा गयी ?' गणिका ने कहा- 'अमर के पास बैठने से ।' 'अमर कौन ?' सम्राट् ने पूछा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy