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________________ १८८ - जैन योग की याचना और स्थान की स्वीकृति के लिए बोलते हैं । इसके सिवा किसी से नहीं बोलते । कोई कुछ पूछता है तो उसका संक्षिप्त उत्तर दे देते हैं । शेष सारा समय अभिव्यक्ति और संपर्क से अतीत रहता है | तप और ध्यान • उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए । भगवान ने पूर्व-अर्जित दुःखों को क्षीण करने के लिए तपस्या की । • अणुत्तरं झाणवरं झियाइ । भगवान् ने सत्य की प्राप्ति के लिए ध्यान किया । • अदु पोरिसिं तिरियभित्तिं, चक्खु मासज्ज अंतसो झाई । भगवान् ने प्रहर-प्रहर तक तिरछी भित्ति पर आंख टिकाकर ध्यान किया । • मीसीभावं पहाय से झाई। भगवान् जन-संकुल स्थानों को छोड़कर एकांत में ध्यान करते थे । • अविझाति से महावीरे, आतणत्थे अकुक्कुए झाणं । उड्ढमहेतियं च, लोए झायइ समाहिमपडिन्ने ।। भगवान् विविध आसनों में स्थिर होकर ध्यान करते थे । वे ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक् लोक को ध्येय बनाकर ध्यान करते थे । मौन • पुट्ठो वि णाभिभासिंसु । भगवान् पूछने पर भी प्रायः नहीं बोलते थे । • रीयइ माहणे अबहुवाई । भगवान् बहुत नहीं बोलते थे । अनिवार्यता होने पर कुछेक शब्द बोलते थे। • अयमंतरंसि को एत्थ ? अहमंसित्ति भिक्खू आहटु । ___ 'यहां भीतर कौन है ?' ऐसा पूछने पर भगवान् उत्तर देते–'मैं भिक्षु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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