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________________ १२४ जैन योग २. इन इन्द्रिय-विषयों का उपयोग करते हुए इनमें राग-द्वेष नहीं रखें । केवल शब्द सुनें किन्तु उसमें राग-द्वेष न करें । इससे श्रोत्रेन्द्रिय का संयम सधता है । इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के संयम भी साधे जा सकते हैं । ३. इन्द्रिय-विषयों के साथ जुड़ने वाले मन को भीतर ले जाएं जिससे बाहर के विषयों का आकर्षण सहज ही समाप्त हो जाए । तपोयोग की साधना का चौथा सूत्र है- ध्यान । ज्ञान और ध्यान एक ही चित्त की दो अवस्थाएं हैं । चित की चंचल अवस्था को ज्ञान और स्थिर अवस्था को ध्यान कहा जाता है। जो चित्त भिन्न-भिन्न आलंबनों पर स्फुरित होता है, वह उसकी ज्ञानात्मक अवस्था है । इसकी तुलना सूर्य की बिखरी हुई रश्मियों से की जा सकती है। जो चित्त एक ही आलंबन पर स्थिर, निरुद्ध या केन्द्रित हो जाता है, वह उसकी ध्यानात्मक अवस्था है । इसकी तुलना सूर्य की केन्द्रित रश्मियों से की जा सकती है । चित्त के तीन रूप चंचल चित्त के तीन रूप बनते हैं - चिन्तन, अनुप्रेक्षा और भावना । चिंतन इसमें विषय की सीमा नहीं होती । इसमें मुक्तभाव से विचार चलता है, विकल्प आते हैं और नए-नए विषय उभरते हैं । अनुप्रेक्षा यह एक विषय पर होने वाला अनुचिंतन है । इसमें निश्चित विषय पर ही विकल्प किए जाते हैं । कोई अनित्य की अनुप्रेक्षा करता है तब वह पदार्थ के अनित्य स्वभाव का ही चिंतन करता है । इसमें मुक्त चिंतन होता है, विषय नहीं बदलता, विकल्प बदलते रहते हैं । भावना इसमें एक विषयक विकल्प की पुनरावृत्ति होती है। अनुप्रेक्षा में विकल्प दोहराया नहीं जाता । इसमें वह दोहराया जाता है । 'आत्मा भिन्न है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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