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________________ AAAAA आठवां पर्व खरमीसे भी अधिक सुन्दर है लक्ष्मी तो पद्म कहिए कमल उसकी निवासिनी है पर यह राणी पाराम मणिके महलकी निवासिनी है। अथानन्तर रावण की राणी मंदोदरी गर्भवती भई सो इसको माता पिताके घर ले गए वहां इन्द्रजीतका जन्म भया। इंद्रजीतका नाम समस्त पृषीविष प्रसिद्ध हुा । अपने नानाकै घर प्रद्धिको प्राप्त भया । सिंहके बालककी नाई साहसरूप उन्मन कीड़ा करता भया। रापणने पुत्र सहित मंदोदरी अपने निकट बलाई सो आज्ञा प्रमाण प्राई । मंदोदरीके माता पिताको इनके विछोहका अति दुख भया। रावण पुत्रका मुख देख कर परम आनन्दको प्राप्त भया सुपुत्र समान और प्रीतिका स्थान नहीं फिर मंदोदरीको गर्भ रहा तब माता पिताके घर फिर ले गए सहां मेघनादका जन्म भया । फिर भरतारके पास आई भोगके सागरमें मग्न भई। मंदोदरीने अपने गुणोसे पति का चित्त वश किया । अब ये बालक इन्द्रजीत अर मेघनद सज्जनोंको मानन्दके करणहारे सुन्दर चरित्रवान तरुण अवस्थाको प्राप्त भए। विस्तीर्ण है नेत्र जिनके बा अपम समान पृथ्वीका भार चलावनहारे हैं । अथानन्तर वैश्रवण जिन जिन पुरोंमें राज करे उन हजारों पुरोंमें कुम्भकर्ण धावे करते मए जहां इन्द्रका अर वैश्रवणका माल होय सो छीनकर अपने स्वयंप्रम नगरीमें ले आवे इस वातसे वैश्रवण बहुत क्रोधायमान भए बालकोंकी चेष्टा जान सुमाली रावणाके दादाके निकट दूत भेजे, कैसा है वैश्रवण ? इन्द्रके जोरसे अति गर्वित है । सो वैश्रवणका दूत द्वारपालसे. मिल समामें भाया अर सुमाली से कहता भया । हे महाराज : वैश्रवण नरेंद्रने जो कहा है सो तुम विच देय सुनो । वैश्रवणाने यह कहा है कि तुम पंडित हो, कुलीन हो, लोक रीतिके ज्ञायक हो, पड़े हो, अकार्यके संगसे भयभीत हो, औरोंको भले मार्गक उपदेशक हो, एसे जो तुम सो तुम्हारे आगे यह बालक चपलता करें तो क्या तुम अपने पोतावोंको मने न करो। तियंच भर मनुष्यमें यही भेद है कि मनुष्य तो योग्य अयोग्यको जाने है अर तिर्यच न जाने है यही विवेककी रीति है । करने योग्य कार्य करिये, न करने योग्य न करिए। जो दृढ़ चित्त हैं वे पूर्व पत्तांतको नहीं भूले हैं घर विजुली समान क्षणभंगुर विभूतिकेहोते हुवे भी गर्वको नहीं धरे हैं। भागे क्या राजा मालीके मरणेसे तुम्हारे कुलकी कुशल भई है अब यह क्या स्यानपन है जो फुलके भूलनाशका उपाय करते हो। ऐसा जगत में कोई नहीं, जो अपने कुलके मूलनाशको आदरे । सुम क्या इन्द्रका प्रताप भूल गए जो ऐसे अनुचित काम करो हो, कैसे हैं इन्द्र ? विध्वंस किये हैं बरी जिसने समुद्र समान अथाह हैं सो तुम मीडकके समान सर्पके मुख में क्रीड़ा करो हो। कैसा है सर्पका मुख ? दादरूपी कंटकसे भरा है श्रर विषरूपी अग्निके कण जिसमेंसे निकस हैं अपने पोते पड़ोताको जो तुम शिक्षा देनेको समर्थ नहीं हो तो मेरें सोंपो मैं इनको तुरन्त सीधे करू अर ऐसा न करोगे तो समस्त पुत्र पौत्रादि कुम्बको बेड़ियोंसे बंधा मलिन स्थानमें रुका देखोगे, अनेक भांति की पीड़ा इनको होगी । पाताल लंकात नीठि (जरा जरा) पाहिर विकसे हो अप फिर वहां ही प्रवेश किया चाहो हो । इस प्रकार दूतके कठोर वचनरूपी पवनसे स्पर्शामनरूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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