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________________ पद्म-पुराण रहित होना है जैसे निर्माल्य वस्तु निंद्य है तैसे परकिंकरता निंद्य है धिक २ गधीनके प्राण धारणको, यह पराधीन पराया किंकर टीकली समान है जैसे टीकली परतंत्र होय कूपका जीव कहिए जल हरै हैं तैसे यह परतंत्र होय पराए प्राण हरे है, कभी भी चाकरका जन्म हत ने पराया चाकर काटकी पूतली समान है ज्यों म्वामी नचाचे त्यों नाचे। यता उज्वलाता ला र कांति तिनसे परकिंकर रहित है जैसे विमान पराये आधीन है चलाश चाने थमाया थम ऊचा चलाये तो ऊचा चढे नीचा उतारे तो नीचा उतरे विकार पराधीनके जीमध्यको जो निर्मल अपने मांसको बेचनहारा महालघु अपने अधीन नहीं सदा परतंत्र, विहार निवारके प्राण धारणको, मैं पराई चाकरी करी पर परवश भया तो ऐसे पाप कर्मको वरूहूं, जो इस निदाप महासतीको अकेली भयानक वनमें तजकर जाऊ हूं। हे श्रेणिक ! जैसे कोई धर्मकी बुद्धिको तजे तैसे वह सीताको वनमें तज कर अयोध्याको सन्मुख भया, अतिलजावान होयकर चला । सीता याके गए पाछे देतीक वारमें मूळसे सचेत होय महा दुखकी भरी यूथभ्रष्ट मृगीकी न्याई विलाप करती भई सो या रुदन कर मानों सबही वनस्पति रुदन करे हैं, वृक्षनिके पुप्प पडे है सोई मानों अायू भए स्वतः स्वभाव महारमणीक याके सर तिनवर विलाप करती मई महा शोक की भरी हाय कमलनयन राम नरोत्तम मेरी रक्षा करो मोहि वचनालाप करो, अर तुम तो निरन्तर उत्तम चेष्टाके धारक हो महागुणवंत शांतचित्त हो तिहारा लेशमात्र ह दोष नहीं तुम तो पुरुपोचम हो मैं पूर्वभवमें जो अशुभकर्म कीए थे तिनके फल पाये जैसा करना तैसा भोगना, कहा करै भर्तार पर कहा करे पुत्र तथा माता पिता बांधव व हा करे, अपना कर्म अपने उदय आवै सो अवश्य भोगना, मैं मन्दभागिनी पूर्व जन्ममें शुभ कर्म कीये ताके फल या निर्जन वनमें दुख को प्राप्त भई, मैं पूर्वभवमें काहूका अपवाद किया परनिंदा करी होगी ताके पापकर यह कष्ट पाया तथा पूर्वभवमें गुरुनिके समीप व्रत लेकर भग्न कीया नाका यह फल पाया अथवा विषफल समान जो दुर्वचन तिनकर कारको अपमान कीया तातै यह फल आये अथवा मैं परभवमें कमलनिके वनमें तिष्ठता चकवा चकवीका युगल विछोडा तात मोहि स्वामीका वियोग भया अथवा मैं परभव में कुचेष्टाकर हंस हंसीनिका युगल निछोडा जे कमलनिकर मण्डित सरोवरमें निवास करणहारे अर बडे बडे पुरुषनिको जिनकी चालकी उपमा दीजै अर जिनके वचन अति सुन्दर जिनके चरण चोंच लोचन काल समान अरुण सी मैं विछोडे उनके दीपकर ऐसी दुख अवस्थाको प्राप्त भई अथवा मैं पापिनी कबूतर क वृतरीके युगल विछोडे हैं, जिनके लाल नेत्र प्राधीचिर में समान अर परस्पर जिनमें अतिग्नेह अर कृष्णागुरु समान जिनका रंग अथवा श्याम वटा रानान अथवा धूम समान धूसरे आरंभी है मुखसे क्रीडा जिन्होंने अर कंठमें तष्ठे हैं मनोहर शब्द जिनके, सो मैं पापिनी जुदे कीये अथवा भले स्थान से दुरे स्थान में मेले अथवा बांधे मारे ताके पापकर असंभाव्य दुःख मोहि प्राप्त भया अथवा वसंतके समय फूले वृक्ष तिनमें केलि करते कोकिल कोकिलीके युगल महामिष्ट शब्दके करनहार परस्पर भिन्न भिन्न कीये, ताका यह फल है अथवा ज्ञानी जीवनिके बंदिवे योग्य महाव्रती जितेन्द्रिय महा मुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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