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________________ सत्तानवेवा प दर्शन दूर । तब अश्रुपात रूप जल की धारासे मुखकमल प्रक्षालनी हुई रहती भइ कि-हे सेनापति ! तू मेरे वचन रामसू कहियो कि मेरे त्यागका विषाद आप न करना, परम धीयको अवलंबन कर सदा प्रजाकी रक्षा करियो, जसे पिता पुत्रकी रक्षा करै, आप महा न्यायवंत हो र समस्त कलाके पारगामी हो, राजाको प्रजा ही अानन्दका कारण है राजा वही जाहि प्रजा शरद की पूनाके चन्द्रमाकी न्याई चाहै । अर यह संसार असार है महा भयंकर दुखरूप है जा सम्यकदर्शन कर भव्यजीव संसारसे मुक्त होवें हैं सो तिहारे श्राराधिवे योग्य है, तुम राजतै सम्यकदशनको विशेष भला जानियो । यह सम्यग्दर्शन तो अविनाशी सुखका दाता है सो अभव्य जीव निंदा करें तो उनकी निंदाके भयले पुशोत्तम ! सम्यक दर्शनको कदाचिन् न तजना यह अत्यंत दुर्ल है जैसे हाथों पाया रत्न समुद्र में डालिये तो बहुरि कौन उपायसे हाथ अादै । अर अमृत फल अंधकूपमें टारा बहुरि कैसे मिले जैसे अमृत फलको डाल वालक पश्चाताप करै तसे सम्यग्दर्शन से रहित हुधा जीप विषाद करे है यह जगत दुनिबार है जगत का मुख बंद करके को कोन समर्थ जाके मुख में जो आये सो ही कहै तात जगतकी वान सुनकर जो योग्य होय सो करियो लोक गडलिका प्रवाह हैं सो अपने हृदयमें, हे गुणभूषण ! लौकिक वार्ता न धरणी अर दानसे प्रीतिक योगकर जनों को प्रसन्न राखना अर विमल स्वभावकर मित्रोंको वश करना अर साधु तथा प्रालिका आहारको आवें तिनको पासुक अन्नसे अतिभक्ति कर निरंतर याहार देना अर चतुर्विध संघकी सेवा करनी, मन वचन कायकर मुनिको प्रणाम पूजन अर्चनादिकर शुभ कर्म उपार्जन करना अ क्रोधको क्षमाकर, मानको निगतार, मायाको निष्कपटता कर, लोभको संगोप कर जीतना, आप सर्व शास्त्र में प्रवीण हो सो हम तुमको उपदेश देनेको समर्थ नहीं क्योंकि हम स्त्रीजन हैं आपकी कृपाके योगसे कभी कोई परहास्यकर अविनय भरा वचन कहा हो तो क्षमा करियो ऐसा कहकर रथसे उतरी अर तृण पापाण कर भी जो पृथ्वी उसमें अचेत होय मूछो खाय पडी सो जानकी भूमि में पड़ी ऐसी सोहती भई मानों रत्नों की राशि ही पड़ी है। कृतांतवक्र सीताको चेष्टारहित मूछित देख महादुखी भया पर चित्त में चित ता भया हाय, यह महा भयानक वन अनेक दुष्ट जोवों कर भरा जहां जे महाधीर शूरवीर शेय तिनके भी जीवनेकी आशा नहीं तो यह केसे जीवेगी ? इसके प्राण व चने काठिन हैं इस महासती माता को मैं अकेली बनमें तजकर जाऊ हूं मो मुझ समान निर्दयी कोन, मुझे किसी प्रकार भी किसी ठहर शांति नहीं एक तरफ स्वाभीकी आज्ञा अर एका रफ ऐसी निर्दयता, मैं पापी दुखके भवरमें पडाई धिक्कार पराई सेवाको जगतमें निंद्य पराधीनता तजो, स्वामी कहे सो ही करना जैसे यंत्रको यंत्री बजावै त्योंही बाजे सो पराया सेवक यंत्र तुल्य है अर चाकरसे कार भजा जो स्वाथीन आजीविका पूर्ण करे है जैसे पिशाचके वश पुरुष ज्यों वह बकावे त्यों बकै तैसे नरेंद्र के वश नर वह जो आज्ञा कर सो करै चाकर क्या न करे पर क्या न कहै अर जैसे चित्रामका थनुप निष्प्रयोजन गुण कहिये फिण चको धरे है सदा नम्रीभूत है तैसे परकिंकर नियोजन गुण को थरे है सदा नम्रीभूत है । धिक्कार किंकरका जीवना, पराई सेवा करनी तंज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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