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________________ ३८४ पद्म पुराण अथानन्तर रामका कटक समीप याया जान प्रलयकाल के तरंग समान लंका क्षोभको प्राप्त भई अर रावण कोररूप भगा पर सामन्त लोक रण कथा करते भये जैसे समुद्रका शब्द होय तैसे वादित्रों के नाद भए अर सर्व दिशा शब्दायमान भई अर रणभेराके नादसे सुभट महा हर्षको प्राप्त भए सब साजबाज सज स्वामीके हित स्वामी के निकट पाए तिनके नाम मारीच, अमल चन्द्र, भास्कर, सिंहप्रभ, हस्त. प्रहस्त इत्यादि. अनेक योधा आयुधोंसे पूर्ण स्वामीके निकट पाए । .' अथानन्तर लापति महा योधा संग्रामके निमित्त उद्यमी भया तब विभीषण रावण आए प्रणाम कर शात्र मार्गके अनुसार अति प्रशंसा योग्य सबको सखदाई आगामी कालमें कल्याण रूप वर्तम न कल्याणरूप ऐसे व वन विभीषण राणसे कहता भया ? कैसा है विभीपण ? शास्त्र में प्रवीण महा चतुर नय प्रमाणका वेत्ता भाई को शान्त वचन कहता भया- -हे प्रभो ! तिहारी कीर्ति कुन्दके पुष्प समान उज्वल महाविस्तीर्ण महा श्रेष्ठ इन्द्र समान पृथिवीपर विस्तर रही है सा परस्त्रीके निमित्त यह कीर्ति क्षण मात्रमें क्षय होयगी जैसे सांझके बादल की रेखा । तात हे स्वामी, हे परमसर, इम पर प्रसन्न होवो शीघ्र ही सीताको रामके पास पठायो, यामें दोष नाही, केवल गुण ही है । सुखरूप समुद्र में आप निश्चय तिष्ठो । हे विचक्षण ! जे न्याय रूप महा भोग हैं वे सब तिहारे स्वाधीन है अर श्रीराम यहां आए हैं सो बडे पुरुष हैं, तिहारा तुल्य हैं सो ज नकी तिन को पठाय देवो । सर्व प्रकार अपनी वस्तु ही प्रशंसा योग्य है परवस्तु प्रशंसा योग्य नाहीं । यह वचन विषणके सुन इन्द्रजीत रावणका पुत्र पिताके वित्त की वृत्ति बान विभीषण को कहा भया अत्यंत मानका भरा अर जिनशासनसे विमुख है। साधो ! तुमको कौनने पूछा अर कौनने अधिकार दिया जाकर या भांति उन्मचकी न्याई वचन कहो हो तुम अत्यंत कायर हो अर दीन लोकनकी नाई युद्धसे डरो हो तो अपने घरके विवरमें बैठो, कह ऐसी बातन कर, ऐसा दुर्लभ स्त्रीरत्न पायकर मूढोंकी नाई कौन तजे ? तुम काहेको वृथा वचन कहो, जा स्त्री अर्थ सुभट पुरुष संग्राममें तीक्ष्ण खड्गको थारा कर महा शत्रुनिको जीत कर वीर लक्ष्मी भुजानि कर उपार्जे हैं तिनके कायरता कहा ? कैसा है संग्राम मानो हाथिनके समूहसे जहां अंधकार होय रहा है अर नाना प्रकारके शस्त्रनिके समूह चले हैं जहां अति भयानक है । यह वचन इन्द्रजीतके सुनकर इंद्रजीतको तिरस्कार करता संता विभीषण बोला-रे पापी ! अन्यायमार्गी वहा तू पुत्र नामा शत्रु है ? तोकू शीत वायु उपजी है, अपना हित नहीं जाने है, शीत वायुकी पीडा अर उपाय छांड शीतल जलमें प्रवेश करतो अपने प्राण खोवे अर घरमें आग लागे अर ता अग्निमें सूके इंधन डारे तो कुशल कहांसे होय ? अहो मोहरूप ग्रहकर तू पीडित है, तेरी चेष्टा विपरीत है, यह स्वर्णमई लंका जहां देव विमान समान घर, लक्ष्मणके तीक्ष्ण वाणोंसे चूर्ण न होय जांय, ता पहिले जनकसुता पतिवनाको रामपै पठाय देह. मर्व लोकके कल्याण के अर्थ शीघ्र ही सीताको पठाना योग्य है तेरे वाप कुबुद्धिने यह सीता नाहीं बानी है रावसरूप सोका विल यह जो लंका तामैं विषनाशक जडी आनी है सुमित्राका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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