SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३८ पैंतालीस प वह महासती शीलवंती सर्व पापरहित मेरे हृदय को बल्लभ मेरा मन रूप मंदिर ताके विरहरूप अग्निसे जड़े है सो ताकी वार्तारूप जलके दानकर कौन बुझावे ? ऐसा कहकर परम उदास, धरती की श्रोर है दृष्टि जिनकी बारंबार कछु एक विचारकर निश्चल होय तिष्ठे । एक चकवीका शब्द निकट ही सुना सो सुनकर ताकी ओर निरखा बहुरि विचारी या गिरिका तट महा सुगन्ध हो रहा है सो याही ओर गई होय अथवा यह कमलनिका वन है यहां कौतूहलके अर्थ गई हो आगे याने यह वन देखा हुता सो स्थानक मनोहर है नाना प्रकार पुष्पनिकर पूर्ण है कदाचित् क्षणमात्र गई होय सो यह विचार आप वहां गये । बहां हूं सीताको न देखा arat देखी तब बारी - वह पवित्रता मेरे बिना अकेली कहां जाय ? बहुरि व्याकुलताको प्राप्त होय जायकर पर्व पूछो भए हे गिरिराज, तू अनेक धातुनिसे भरा है मैं राजा दशरथका पुत्र रामचन्द्र तोहि पूछू' हुँ, कमल सारिखे हैं नेत्र जाके सो सीता मेरे मनकी प्यारी हंसगामिनी सुंदर स्तनके भारम नम्रीभूत है अंग जाका हिंदूी समान अधर सुंदर नितंब सो तुम कहूं देखी, वह कहां हैं ? तब पहाड़ कहा जबाब देय इनके शब्द से गूंजा । तब आप जानी कड याने शब्द कहा, जनिये है याने न देखी, वह महासती काल प्राप्त भई, यह नदी प्रचण्ड तरंगनिकी धरणहारी अत्यंत वेगको घरे बहै है अविवेकवंती ताने मेरी कांताहरी, जैसे पापकी इच्छा विद्याको हरे अथवा कोई क्रूर सिंह क्षुधातुर भख गया होय, वह धर्मात्मा साधुवर्गनिकी सेवक्र सिंहादिकके देखते ही नखादिके स्पर्श विना ही प्राण देय । मेरा भाई भयानक रणमें संग्राम में है सो जीवनेका संशय है यह संसार असार है अर सर्व जीवराशि संशय रूप ही है, अहो यह बडा आश्चर्य है जो मैं संसारका रूप जानू हूं अर दुखते शून्य होय रहा हूं एक दुख पूरा नहीं पर है दूजा और है तातें जानिए हैं यह संसार दुखका सागर ही हैं, जैसे खोड़े पगको खंडित करना पर दाहे मारेको भस्म करना अर डिगेको गर्त में डरना, रामचन्द्रजीने वनमें भ्रमणकर मृग सिंहादिक अनेक जन्तु देखे परंतु सीता न देखी तब अपने आश्रम आय अत्यंत दीन वदन धनुष उतार पृथिवी में तिष्ठे । बारंबार अनेक विकल्प करते क्षण एक निश्चल होय मुखसे पुकारते भए । हे श्रेणिक, ऐसे महा पुरुषनको भो पूर्वोपार्जित अशुभके उदय दुख होय है ऐसा जान कर श्रहो भव्यजीव हो, सदा जिनवर के धर्म में बुद्धि लगावो, संसार ते ममता तजी । जे पुरुष संसार के विकार' पराङ्मुख होंय अर जिनवचनको नहीं अथें वे संसार में शरखरहित पाप रूप वृक्ष कटुक फल भोगवे हैं कर्मरूप शत्रुके आतापसे खे खिन्न हैं । 1 1 इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै सीताका हरण जर रामका त्रिलाप वर्णन करनेवाला चालीसवां पर्व पर्णं भया ॥ ४४ ॥ अथानन्तर लक्ष्मणके समीप युद्धों खरदूषणका शत्रु विराधित नामा विद्याधर अपने मंत्री पर शूरवीरनि सहित शस्त्रनि कर पूर्ण आया सो लक्ष्मणको अकेला युद्ध करते देख महा नरोचम जान अपने स्वार्थ की सिद्धि इनसे जान प्रसन्न भया, महा तेज कर देदीप्यमान शोभता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy