SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ३३५ पा पुगण जानकी नाही, तब प्रथम तो विचारी कदाचित् सुरति भंग भया हूं बहुरि निर्धारण देखें तो सीता नाही, तब आप हाय सीता ! एमा कह मूर्छा खाय थरती पर पड़े । सो धरती रामके विलापसे कैसी सोहती भई, जैसे भरतारके मिलापसे भार्या सोहै । बहुरि सचेत होय वृक्षनिकी ओर दृष्टि धर प्रेमके भरे अत्यंत आकुल होय कहते भए-हे देवी तू कहां गई, क्यों न बोलो हो, बहुत हास्य कर कहा वृक्षनिके आश्रय बैठी होय तो शीघ्र ही श्रावो, कोपकर कहा ? मैं तो शीघ्र ही तिहारे निकट अया। हे प्राणवल्लभे, यह तिहारा कोप हमें दुखका कारण है या भांति विलाप करते फिरे हैं। सो एक नीची भूमिमें जटायुको कंठगतप्राण देखा तब आप पक्षीको देख अत्यंत खेदखिन्न होय याके समीप बैठे, नमोकार मंत्र दिया अर दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये चार आराथना सुनाई, अरिहन्त सिद्ध केलीप्रणीत थर्मका शरण लिवाया पक्षी श्रावकके व्रतका धरणहारा श्रीरामके अनुग्रहकर समाधि मरण कर स्वर्गमें देव भया, परंपराय मोक्ष जायगा, पक्षीके मरणके पीछे आप यद्यपि ज्ञानरूप हैं, तथापि चारित्र मोहके वश होय महाशोकवन्त अकेले वनमें प्रियाके वियोगके दाहकर मूळ खाय पड़े बहुरि सचेत होय महा व्याकुल महासती सीताको ढूंढते फिरें, निर श भए दीन वचन कहैं जैसे भूतके आवेश कर युक्त पुरुष वृथा आलाप करे। छिद्र पाय महाभीम वनमें काहू पारीने जानकी हरी, सो बहुत विपरीत करी, माहि मारा, अब जो कोई मोहि प्रिया मिलावे अर मेरा शोक हरे ता समान मेरा परम बांधर नाहीं। हो वनके वृक्ष हो, तुम जनकसुता देखी? चंपाके पुष्प समान रंग कमलदल लोचन सुकुमार चरण निर्मल स्वभाव उत्तम चाल, चित्तकी उत्सव करणहारी कमल के मकरंद समान सुगन्ध मुखका स्वांस स्त्रिनिके मध्य श्रेष्ठ तुमने पूर्व देखी होय तो कहो, या भांति वनके वृक्षनिसू पूछे हैं सो वे एके द्री वृत कहा उत्तर देवें । तब राम सीताके गुणनिकर हरा है मन जिनका, बहुरि मूळ खाय धरतोपर पडे बहुरे सचेत होय महाक्रोधायमान वज्रावर्त धनुप हाथमें लिया, फिगच चहाई टंकोर किया, सा दशों दिशा शब्दायमान भई, सिंहनिको भयका उपजावनहारा नरसिंहने धनुषका नाद किया । सो सिंह भाग गये अर गजनिक मद उतर गये । तर धनुष उतार अत्यंत विवादको प्राप्त होय बैठकर अपनी भूल का सोच करते भए, हाय, हाय, मैं मिया सिंहनादके श्राणका विश्वास मान वृथा जाय प्रिया खोई, जैसे मृह जीव कुश्रुतका श्रवण सुन विश्वास मान अविवेकी हाय शुभ गतिको खोवे, सो मृहके खोयबेका आश्चर्य नाही परंतु मैं धर्मबुद्वि वीतरागके मामका श्रद्वानी असमझ होय असुरकी मायामें मोहित हुआ, यह आश्चर्य की बात है जैसे या भव वनमें अत्यंत दुर्लभ मनुष्यकी देह महापुण्य कर्मवर पाई, ताहि वृथा खोये ती बहुरि कब पावे पर त्रैलोक्यमें दुर्लभ महारत्न ताहि समुद्रमें डारे, बहुरि कहां पावे ? तै बनतारूप अमृत मेरे हाथम गया। बहुरि कौन उपायकर पाइये या निर्जन वनमें कौनको दोष दू। मैं ताहि तनकर भाइ पै गया। सो कदाचित कोपकर आर्या भई होप। या अरण्य बना मनु य नाहीं कौनको जाय पूछे, जो हमको स्त्रीकी वार्ता कहे। ऐसा कोई या लोकमें दयावान श्रेष्ठ पुरुष है जो मोहि सीता दिखावे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy