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________________ २८९ पद्म-पुरेणि 1 अर कंचन दिरहित मासे हैं । जाके स्तन युगलमे कांतिरूप जलकी तरंगिनी समान त्रिचलो शोभै . है अर जैसे मेटलको भेद निशाकर निकसे तैसे वस्त्रको भेद अंगकी ज्योति फैल रही है अर श्र त्यंत चिकने सुगंध कारे वांके पतले लम्बे केश तिनकरि विराजित हैं प्रभारूप बदन जाका मानों कारीघटा में विजली के समान चमके है अर महासूदन स्निग्ध जो रोमोंकी पंक्ति ताकर विराजित मानों नीलम निकर मंडित सुवर्ण की मूर्ति ही है। तत्काल नररूप तज नारीका रूपकर मनोहर नेत्रनिकी धरनहारी सीताके पायन लाग समीप जाय बैठी जैसे लक्ष्मी रतिके निकट जाय बैठे सो याका रूप देख लक्ष्मण कामकर बींधा गया, और ही अवस्था होय गई, नेत्र चलायमान भए । तब श्रीरामचन्द्र कन्याते पूछने भए, तू कौनकी पुत्री है अर पुरुषका भेष कौन कारण किया। तब वह महाभिष्टवादिनी अपना अंग वस्त्रते ढांक करती भई हे देव ! मेरा वृत्तांत सुनहु या नगरका राजा बालखिल्य महाबुद्धि सदा आचारवान श्रावकके व्रतका धारक महादयालु जिनधर्मियोंपर वात्सल्य अंगका धारणाहारा, राजाके पृथ्वी रानी ताहि गर्भ रहा सो मैं गर्भविषै आई श्रर म्लेच्खनिका जो अधिपति तासे संत्रा भया । मेरा पिता पकड़ा गया सो मेरा पिता सिंहोदर का सेवक सो सिंहोदरने यह आज्ञा करी जो बालखिल्यके पुत्र होय सो राज्यका कर्ता होय, सो मैं पाविनी पुत्री भई । तब हमारे मंत्री सुबुद्धि ताने मनश्वाकर राज्य के अर्थ मुझे पुत्र ठहराया । सिंहोदर को वीनती लिखी कल्याणमाल मेरा नाम धरा अर बडा उत्सव किया सो माता अर मंत्री ये तो जाने हैं जो यह कन्या है और सब कुमार ही जाने हैं सो एते दिन व्यतीत किए अब पुण्यके प्रभावते आपका दर्शन गया | मेरा पिता बहुत दुःखसे तिष्ठे है म्लेच्छनिकी बंदमें है । सिंहोदर हू ताहि छुडायवे समर्थ नहीं अर जो द्रव्य देश में उपजे है सो सब म्लेच्छके जाय है । मेरी माता वियोगरूप अग्निकरि तप्तायमान जैसे दूजके चन्द्रमाकी मूर्ति क्षीण होप तैसी होय गई है ऐसा कहकर दुखके भारकर पीडित है समस्त गाव जका, सो मूर्छा खाय गई र रुदन करती भई । तब श्रीरामचन्द्रने अत्यंत मधुर वचन कहकर थीर्य बंधाया, सीता गोद में लेय बैठी। मुख धोया अर लक्ष्मण कहते भए - हे सुन्दरी ! सोच तज अर पुरुषका भेषकर राज्य कर, कैथक दिननिमें म्लेच्छनिकू पकडा अर अपने पिता को छूटा जान, अँसा कहकर परम हर्ष उपजाया सी इनके वचन सुनकर कन्या पिताको छूटा ही जानती मई । श्रीराम लक्ष्मण देवनिकी नाई तीन दिन यहां बहुत आदरते रहे बहुरि रात्रि मैं सोवासहित उपवनते निकसकर गोप चले गए । प्रभात समय कन्या जागी तिनको न देख व्याकुत भई अर कहती मई, वे महान पुरुष मेरा भन हर ले गए, मो पापिनिको नींद आ गई सो गोप चले गए । या भांति मिलाकर मनको थांभ हाथीपर चढ पुरुषके भेष नगर में गई र राम लक्ष्मण कल्याणमाला के विनयकर हरा गया है चित्त जिनका, अनुक्रमते मेकला नामा नदी पहुँचे। नंदी उतर क्रीडा करते अनेक देशनिकों उलंघ विन्ध्याटवरीको प्राप्त भए, पंथ जत्रे संते गुवालनिने मने किए कि यह अटवी भयानक है तिहारे जाने योग्य नाहीं, तब आप तिनकी बात न मानी चले ही गए। कैसी है बनी १ क एक लवाकर पंडित जे. शालवृक्षदिक तिनकरि शोभित है और नानाप्रकारके सुगंध वानिक₹ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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