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________________ इकत्तीसवा पर्व संयुक्त सुगंधित स्निग्यभोजन कर हैं, केसर अर सुगंधादिकर लिप्त अंग जाके, अर जिनके निकट धूपदानमें धूप खेइए हैं। भर परिपूर्ण धनकर चितारहित हैं, झरोखोंमें बैठे लोकनको देखे हैं और जिनके समीप गीत नृत्यादिक विनोद होयत्रो करे हैं, रत्नोंके आभूषण अर सुगन्धमालादिककर मंडित सुन्दर कथामें उद्यमी हैं और जिनके विनयवान अनेक कलाकी जाननहारी महारूपवंती पतिव्रतास्त्री हैं। पुण्यके उदयकर ये संसारी जीव देवगति मनुष्यगतिके सुख भोग हैं अर पापके उदयकर नरक तिथंच तथाकुमानुष होय दुख दारिद्र भोगे हैं, ये सर्व लोक अपने अपने उपार्जित जे कर्म तिनके फल भोगे हैं ।ऐसे मनमें विचारकर राजा दशरथ संसार के वाससे अत्यन्त भयको वेकी है अभिलापा जाके, समस्त भोग वस्तुनिसे विरक्त भया, द्वारपालको कहता भया । कैसा है द्वारपाल भूमिमें थापा है मस्तक अर जोडे हैं हाथ जाने, नृपति ताको आज्ञा की। हे भद्र ! सामंत मंत्री पुरोहित सेनापति आदि सबको ल्यावो, तब वह द्वारपाल द्वारेपर प्राय दूजे मनुष्यको द्वारपर मेल तिनकी आज्ञा प्रमाग्म बुलावनेको गया, तब वे आयकर राजाको प्रणामकर यथायोग्य स्थानमें तिष्ठे, विनतीकर कहते भए-हे नाथ आज्ञा करो क्या कार्य है ? तब राजा कही-मैं संसारका त्यागकर निश्चयसेती संयम धरूंगा, तब मंत्री कहते भए-हे प्रभो! तुमको कौन कारण वैराग्य उपजा, तब नृपति कही जो प्रत्यक्ष यह समस्त जगत् सूके तृणकी भ्याई मृत्युरूप अग्निकर जरे है पर जो अभव्यनको अलभ्य र भव्यनको लेने योग्य ऐसा सम्यक्स्व सहित संयम सो भयतापका हा पहारा अर शिवसुखका देनहारा है सुर असुर नर विद्याधरों कर पूज्य प्रशंसा योग्य है, मैं आज पुनिके मुखसे जिनशासनका व्याख्यान सुना, कैसा है जिनशासन ? सकल पापोंका वर्जनहारा है, तीन लोकविणे प्रकट महा सूक्ष्म है चर्चा जाविणे प्रतिनिर्मस उपमारहित है । सर्व वस्तुनिमें सम्यक्त्व परम वस्तु है ता सम्यक्त्वका मूल जिनशासन है श्रीगुरुमोंके चरणारबिंदके प्रसादकर मैं निवृत्तिमार्गमें प्रवृत्ता, मेरी भव भ्रांति रूप नदीकी कथा भाज मैं मुनिके मुख से सुनी अर मोहि जातिस्मरण भया। सो अंग देखो त्रास कर कापे हैं कैसी है मेरी भवभ्रांति नदी ? नानाप्रकारके जे जन्म वेही हैं भंवर जामें अर मोहरूप कीच कर मलिन इतरूप माहनिकर पूर्णमहादुःख रूप लहर उठे हैं निरंतर जामें, मिथ्यारूप जलकर भरी, मृत्यु रूप मगरमच्छोंका है भय जामें रुदनके महाशब्दको धरे, अधर्म प्रवाह कर बहती प्रज्ञानरूप पर्वसते निकसी संसाररूप समुद्र में है प्रवेश जाका सो अब मैं इस भवनदीको उलंघकर शिवपुरी जोय. खेका उद्यमी भया हूं। तुम मोहके प्रेरे कछु वृथा मत कहो, संसार समुद्र तर निर्वाण द्वीप जाते अन्तराप मत करो जैसे सूर्यके उदय होते अंधकार न रहे तैसे सम्यकज्ञानके होते संशय तिमिर नहीं रहे साते मेरे पुत्रको राज्य देहु, अब ही पुत्रका अभिषेक करावहु मैं तपोवनमें प्रवेश करू ये वचन सुन मंत्री सामंत राजा को वैराग्यका निश्चय जान परम शोकको प्राप्त भए । नीचे होय गए हैं मस्तक जिनके पर अश्रुपात कर भर गए हैं नेत्र जिनके, अंगुरी कर भूमिको कुचरते ब्णमात्रमें प्रभारहित होय गए, मौनसे तिष्ठे पर सकल ही रणवास प्राणनाथका निग्रंथ ब्रतका निश्चय सुन शोकको प्राप्त भया, भनेक विनोद करते हुते सो तज कर आंसुओंसे लोचन मर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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