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________________ दोनों मारे गए । पुरोहितका जीव हाथी भया सो हाथी युद्ध में घायल होय अम्त काल नमोकार मंत्रका श्रवणकर तहां गांधारी नगरीमें राजा भूतिकी राखी योजनगन्या ताके परिसूदन नामा पुत्रमया सो ताने केवलग मुनिका दर्शनकर पूर्व जन्म स्मरण किया तब महा वैराग्य उपजा सो मुनिपद आदरा, समाधि मरणकर ग्यारवें स्वर्गमें देव मया। सो में उपमन्यु पुरोहिनका जीव अर तू राजा भूति मरकर मन्दारण्यमें मृग भया। दावानलमें अर मृवा, मरकर कलिंजनामा नीच पुरुष भया सी महापापकर दूजे नरक गया सो मैं स्नेहके योगकर नरकमें तुझे संबोधा । आयु पूर्ण कर नरकसे निकस रत्नमाली विद्याधर भया सो तू वे अब नरकके दुख भूल गया। यह वार्ता सुन रत्नमाली सूर्यजय पुत्रसहित परम वैराग्यको प्राप्त भया । दर्गतिक दखसे डरा, तिल सुन्दर स्वामीका शरण लेय पिता पुत्र दोनों मुनि भए । सूर्यजय तपकर दसमें देवलोक देव भया तहांतें चयकर राजा अनरण्यका पुत्र दशरथ भया । सो सर्व भूतहित मुनि कहे हैं अल्पमात्र भी सुकृतकर उपास्तिका जीव कैयक भव में बडके बीजकी नाई वृद्धिको मात भया । तू राजा दशरथ उपास्तिका जीव है और नंदिवर्धनके भवविर्ष तेरा पिता राजा नदिघोष मुनि होय ग्रेवयक गया सो तहांते चयकर मैं सर्वभूतहित मया अर जो राजा भूतिका जीव रत्नमाली भया हुता सो स्वर्गसे आय कर यह जनक भया। पर उपमन्य पुरोहितका जीव जाने रत्नमालीको संबोधा हुता सो जनकका भाई कनक भया । या संसारविष न कोई अपना है, न कोई पर है, शुभाशुभ कर्मो कर यह जीव जन्म मरण करे हैं यह पूर्व भवका वर्मन सुन राजा दशरथ निसंदेह होय संयमको सन्मुख भया । गुरुके चरणनिको नस्मकारकर नगरमें प्रवेश किया, निर्मल है अन्तःकरण जिनका, मनमें विचारता भया कि यह महा मंडलेश्वर पदका राज्य महा सुबुद्धि जे राम तिनको देकर मैं मुनिबत अंगीकार करू। राम धर्मात्मा है पर महा धीर हैं धीर्यको थरे हैं, यह समुद्रांत पृथ्वीका राज्य पालवे समर्थ हैं। भर माई भी इनके आज्ञाकारी हैं । ऐसा राजा दशरथने चितवन किया, कैसे हैं राजा ? मोहते परामुख पर मुक्तिके उद्यमी, ता समय शराद ऋतु पूर्ण मई अर हिमऋतुका आगमन भया, कैसी है शरदऋतु: कमल ही हैं नेत्र जाके, अर चंद्रमाकी चांदनी सोही हैं उज्ज्वल वस्त्र जाके, सो मानों हिमऋतुके भयकर भाग ग.।। - अथानन्तर हिमऋतु प्रकट भई, शीत पड़ने लगा, वृक्ष दहै पर ठंडी पवनकर लोक व्याकुल भए । जा ऋतुविणे धनरहित प्राणी जीर्ण कुटिमें दुखसे काल व्यतीत करे है, कैसे है दरिद्रो १ फट गए अधर अर चरण जिनके, अर बाज हैं दांत जिनके पर रूखे हैं केश जिनके भर निरन्तर अग्निका है सेवन जिनके अर कभी भी उदर भर भोजन न मिले, कठोर है चर्म जिनका भर घरमें कुभार्याके वचनरूप शस्त्रनिकर विदारा गया है चिच जिनका । पर काष्ठादिकके भार लायवे को कांधे कुठारादिको धरे वनर भटके हैं और शाक वोपलि आदि ऐसे माहारकर पेट भरे हैं अर जे पुण्यके उदय कर राजादिक धनाढ्य पुरुष भए हैं। ते बड़े महलोंमें तिष्ठे हैं पर शीतक निवारणहारे अगरके धूपकी सुगंधिताकरयुक्त सुंदर वस्त्र पहरे हैं अर रूपादिकके पात्रोंमें पट्रस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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