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________________ - १४६ पद्म-पुराण है सो मुनिका धर्म मनुष्य जन्म विना नहीं पाइए है, तातैं मनुष्य देह सर्व जन्मविषैश्रेष्ठ है, जैसे मृग कहिए वनके जीव तिनमें सिंह अर पक्षियोंविषै गरुड अर मनुष्यविषैराजा, देवोत्रिषै इंद्र, तृणोंविष शालि, वृक्षों विषै चन्दन र पाषाणांविषै रत्न श्रेष्ठ है, तैसे सकल निषै मनुष्य जन्म श्रेष्ठ हैं, तीन लोकविषे धर्म सार है । सो मुनिका धर्म मनुष्य देहसे ही होय हैं तातैं मनुष्य समान और नही । अनंत काल यह जीव परिभ्रमण करें है तामैं मनुष्य जन्म कब ही पावै हैं यह मनुष्यदेह महादुर्लभ है। ऐसे दुर्लभ मनुष्य देहको पाय जो मूढ़ प्राणी समस्त क्लेश से रहित करणद्वारा जो मुनिका धर्म अथवा श्रावका नहीं करै है सो वारम्वार दुर्गतिविषै भ्रमण करै है । जैसे समुद्र विषै गिरा महागुणों का वरणहारा रत्न बहुरि हाथ आवना दुर्लभ है तैसे भव समुद्रविषै नष्टहुआ नर देह बहुरि पावना दुर्लभ है, इस मनुष्य देहविषै शास्त्रोक्त धर्मका साधन कर कोई मुनिव्रतधर सिद्ध होय हैं अर कोई स्वर्गनिवासी देव तथा हमिंद्र पद पावें, परम्परा मोक्ष पात्र हैं, या भांति धर्म अधर्म के फल केवलीक मुखतें सुनकर सब ही सुखको प्राप्त भए । ता समय कमल सारिखे हैं नेत्र जाके ऐसा कुम्भकरण हाथ जोड़ नमस्कारकर पूछता भया उपजा है अति आनंद जाकेँ । हे भगवान ! मेरे श्रव भी तृप्ति न भई तातैं विस्तार कर धर्मका व्याख्यान विधिपूर्वक मोहि कहो । तब भगवान अनन्तवीर्य कहते भए - 'हे भव्य ! धर्मका विशेष वन सुनोजाकर यह प्राणी संसार के बंधननितें छूटे सो धर्म दो प्रकारका है- एक महात्रतरूप दूजा अणुव्रतरूप । सो महाव्रतरूप यतिका धर्म है, अणुत्रतरूप श्रावकका धर्म है । यति घरके त्यागी हैं श्रावक गृहवासी हैं, तुम प्रथम ही सर्व पापों का नाश करण द्वारा सर्व परिग्रह के त्यागी जे महामुनि तिनका धर्म सुनो । 1 या अवसर्पिणी कालमें ब तक ऋषभदेवतं मुनिसुव्रत पर्यंत बीस तीर्थकर हो चुके हैं अत्र चार और होंगे या भांति अनन्त भए अर अनन्त होवेंगे सो सबका एक मत है । यह श्रीमुनिसुव्रतनाथका समय है । सो अनेक महापुरुष जन्म मरणके दुःखकरि महा भयभीत भए या शरीरको एरण्डकी लकड़ी समान असार जान सर्व परिग्रहका त्याग कर मुनिब्रतको प्राप्त भए । ते साधु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्यागरूप पंचमहाब्रत तिनदिषै रत तत्त्वज्ञानविषे तत्पर पंचसमिति के पालनहार, तीन गुप्ति के धरनहारे, निर्मलचित्त महापुरुष परमदयालु निजदेहविष भी निर्ममत्व रागभावरहित जहां सूर्य अस्त होय तहां ही बैठ रहें, आश्रय कोई नहीं, तिनके कहा परिग्रह होय, पापका उपजावनहारा जो परिग्रह सो तिनके वालके अग्रभाग मात्र हू नाहीं, वे महाथीर महामुनि सिंह समान साहसी, समस्त प्रतिवन्ध रहित, पवन सारिखे असंगी, तिनके रंचमात्र भी संग नहीं, पृथिवी समान क्षमावंत, जल सारिखे विमल, अग्नि सारिखे धर्मको भस्म करनहारे, आकाश सारिखे अलिप्त, सर्व सम्बन्ध रहित, प्रशंसा योग्य है चेष्टा जिनकी, चन्द्र सारिखे सौम्य, सूर्य सारिखे तिमिर हरता, समुद्र सारिखे गम्भीर, पर्वत सारिखे अचल, कछुवा समान इन्द्रियां के संकोचन हारे, कपायोंकी तीव्रतारहित, अठाईस मूलगुण चैरासी लाख उत्तर गुणोंके धारणहारे, अठारह हजार शील के भेद, तिनके धारक, तपोनिधि मोक्षमार्गी जिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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