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________________ १४५ चौदहवां पर्व ये हैं कैसे हैं स्वर्गनिवासी देव १ अपनी कांतिकर र दीप्तिकर चांद सूर्य को जीते हैं। स्वर्गलोकविषै रात्रि अर दिवस नाहीं, पट्ऋतु नाहीं, निद्रा नाहीं अर देवोंका शरीर माता पिता स उत्पन्न नाहीं, होता जब अगला देव खिर जाय तत्र नया देव श्रपपादिक शय्याविषै उपजै है जैसे कोई सूता मनुष्य सेजतें जाग उठे तैसे क्षणमात्रमें देव औपपादिक शय्याविषै नवयौवनको प्राप्त भगा प्रकट होय हैं कैसा है तिनका शरीर ? सात धातु उपधातु रहित, निर्मल रज पसेव र रोगों रहित सुगंध पवित्र कोमल परम शोभायुक्त नेत्रोंको प्यारा ऐसा औपपादिकशुभ वैयिक देवका शरीर होय सो ये प्राणी धर्मकरि पावै हैं जिनके आभूषण महा देदीप्यमान तिनकी कान्तिके समूहकर दशदिशामें उद्योत हो रहा है अर तिन देवनके देवांगना महासुन्दर हैं कमलोंके पत्र समान सुंदर हैं चरण जिनके अर केले के थंभ समान है जङ्घा जिनकी कांचीदाम (तागड़ी) कर शोभित सुन्दर कटिअर नितंब जिनके जैसे गजोंके घण्टीका शब्द होय तैसे कांचीदामकी क्षुद्र टिकाका शब्द होय है उगते चन्द्रमासे अधिक कांति धरै हैं मनोहर है स्तनमंडल जिनका, रनों के समूहसे ज्योतिको जीते अर चांदनीको जीते ऐसी है प्रभा जिनकी, मालतीकी जो माला साहू अति कोमल भुजलता है जिनकी, महा अमौलिक बाचाल मणिमई चूड़े उनकर शोभित . है हाथ जिनके, अर शोकवृक्षकी कोंपल समान कोमल अरुण हैं हथेली जिनकी, अति सुन्दर करकी अंगुली, शंख समान ग्रीवा, कोकिल यति मनोहर है कंठ, अति लाल अति सुंदर रसके भरे र तिनकर आच्छादित कुन्दके पुष्प समान दन्त पर निर्धन दर्पण समान सुन्दर हैं कपोल जिनके, लावण्यताकर लिप्त भई हैं सर्वदिशा र अति सुन्दर तीक्ष्ण काम के बाण समान नेत्र सोनेत्रों की कटाक्ष कर्णपर्यत प्राप्त भई हैं सांई मानों कर्णाभरण भये अर पद्मराग मणि आदि अनेक मणियोंके भूपण र मोतियोंके हार उन से मण्डित र भ्रमर समान श्याम अति सूक्ष्म ति निर्मल अति चिकने प्रति वक्रता धरै लम्बे केश कोमल शरीर अति मधुर स्वर अत्यन्त चतुर सर्व उपचार की जाननहारी महा सौभाग्यवती रूपवती गुणवती मनोहर क्रीड़ाकी करणहारी नन्दनादि वन से उपजी जो सुगन्ध ताहू अति सुगन्ध है श्वास जिनके पराये मनका अभिप्राय चेष्टासे जान जाय ऐसी प्रवीण पंचेंद्रियोंके सुखकी उपजावनहारी मनवांछित रूपकी धरण हारी ऐसी स्वर्ग में जो अमरा बह धर्मके फलसे पाइए हैं अर जी इच्छा करें सो चितवतमात्र सर्व सिद्धि होय, इच्छा करें सो ही उपकरण प्राप्त होय, जो चाहें सो सदा संग ही हैं, देवांगनावोंकर देव मनवांछित सुख भोगे हैं। जो देवलोकमें सुख हैं तथा सनुष्य लोकविषै चक्रवर्त्यादिकके सुख हैं। सो सर्व धर्मका फल जिनेश्वर देवने कहा है, पर तीन लोकमें जो सुख ऐसा नाम धरावे हैं सो सर्व धर्मकर उत्पन्न होय है । जे तीर्थकर तथा चक्रवर्ती बलभद्र कामदेवादि दाता भोक्ता मर्यादाके कर्त्ता निरन्तर हजारों राजावों तथा देवोंकर सेइए हैं सो सर्व धर्म का फल है । अर जो इंद्र स्वर्गलोकका राज्य हजारों जे देव मनोहर आभूषण के धरणारे तिनका प्रभुत्व भरे हैं सो सर्व धर्मका फल है, यह तो सकल शुभांपयोगरूप व्यवहार धर्मके फल कहे अर जे महामुनि निश्चयसे रत्नत्रय के धरणारे मोहरिका नाशकर सिद्धपद पावै हैं सो शुद्धोपयोगरूप आत्मीक धर्मका फल १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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