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________________ तृतीयं पर्व नृपत्वं श्रेयसा सार्धमन्वभूत्सं यथा पुरा । एकदा स विहारार्थ बाह्योद्यानं गतो घनम् ॥५ तत्रासीनं मुनि लोक्यं शीलगुप्तं ननाम सः । शृण्वन्धर्म स्थितेनामा नागयुग्मेन तत्र च ॥६ प्रत्याविशत्पुरीं तुष्टो विशिष्टवृषवर्धितः । कदाचित्स घनारम्भे प्रचण्डवज्रपाततः ॥७ मृतः शान्ति समापन्नो नागो नागामरोऽजनि । अन्यदा गजमारुह्य तद्वनं पुनराप सः ॥८ साधं श्रुतवती नागीं धर्म राजात्र चात्मना । दृष्ट्वा काकोदरेणामा कृतकोपं विजातिना ॥९ जघानेन्दीवरेणासौ जम्पती तौ धिगित्यरम् । नश्यन्तौ पत्तयः काष्ठैलोष्ठेरनन्समे तदा ॥१० दुश्चरित्राय को नात्र राजकोपे हि कुप्यति । वेदनाकुलधीमृत्वा नागः स निर्जरान्वितः ॥११ तदा बभूव गङ्गायां कालीति जलदेवता । पश्चात्तापहता सापि धर्म ध्यात्वा स्वमानसे ॥१२ स्वनागस्य प्रिया भूत्वा राज्ञः स्वमृतिमाह च । जातकोपोऽमरो हन्तुं जयं तद्गहमासदत्॥१३ सहन्ते न ननु स्त्रीणां तिर्यश्चोऽपि पराभवम् । जयो रात्रौ वसन्गेहं श्रीमत्याः कौतुकं प्रिये॥१४ श्रवण कर आनंदित तथा विशिष्ट धर्मसे उन्नत होकर राजा नगरमें लौट आया। किसी समय वह नाग वर्षाकालमें प्रचण्ड वज्रपात होकर शान्तिसे मरा और नागकुमार देव हुआ । जयकुमार राजा हाथीपर चढकर पुनः उस वनमें आया । वहां पूर्व कालमें जिसने अपने साथ धर्मश्रवण किया था ऐसी नागिनीको काकोदर नामक विजाति सर्पके साथ देखकर ' इस दम्पतिको धिक्कार है' ऐसा कह कर नीलकमलसे ताडन किया। जब वे नाग और नागिनी भागने लगे तब राजाके सैनिकोंने लकडी तथा पत्थरोंसे दोनोंको युगपत् मार डाला। योग्य ही है कि दुश्चरित्रके ऊपर राजकोप होनेपर कौन कुपित नहीं होता ? अर्थात् कुपित होते हैं । वेदनासे व्याकुल वह नाग मरकर कर्मनिर्जरासे गंगानदीमें काली नामकी जल-देवता हो गया। वह नागिनी भी पश्चात्तापपीडित होकर और मनमें धर्मके स्वरूपका विचार कर मरनेसे अपने नागकी प्रिय पत्नी हुई। तथा उसने उसको अपने मृत्युका हाल कह सुनाया। तब वह नागकुमार वरुद्ध होकर जयकुमार राजाको मारनेके लिये उसके घर आगया ॥ ५-१३ ॥ ठीकही है कि तिथंच प्राणी भी अपनी स्त्रियोंका अपमान सहन नहीं करते हैं। किसी समय जयकुमार राजा रात्रीमें श्रीमतीके महलमें रह कर उसे " हे प्रिये, कौतुककी एक बात मैंने देखी वह मैं तुझे कहता हूं सुन " कह कर उसने श्रीमतीको नागिनीका सम्पूर्ण चरित कहा । " मैंने यहां कहांसे जन्म लिया है ? मुझे किससे धर्मोपदेश मिला" ऐसा विचार करनेसे उस देवको सब वृत्त मालूम हुआ । “ मुझे इस राजाकी संगतिसे धर्मप्राप्ति हुई तथा वह धर्म मेरे साथ मोक्षप्राप्ति होने तक रहेगा। सत्संगतिको छोडकर अन्य हित नहीं है," ऐसा विचार कर नागकुमारने राजाके ऊपरका कोप छोड दिया और कृतज्ञ तथा श्रेष्ठ ऐसे जयकुमारकी उसने रत्नोंसे पूजा की और अपना वृत्तान्त कह दिया । तथा अपने कार्यके प्रसंगमें मेरा स्मरण करो ऐसी विज्ञप्ति कर वह देव अपने घर चला गया ॥ १४-१७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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