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________________ अवादशं पर्व ३८५ कथं कथमपि प्राप्ताश्चेतना कौरवा नृपाः। प्रपेदिरे त्रपापूर्णाः पुरं प्रमोदवर्जिताः॥१५५ विराटो विकटो मत्वा तानिमान्पश्च पाण्डवान् । नत्वा करपुटं कृत्वा मूर्ध्नि विज्ञप्तिमातनोत्।। एतावत्समयं देव न ज्ञातो भगवान्भवान् । मया धर्मात्मजस्त्वं हि तदागः क्षम्यतां मम॥ अतस्त्वमेव खाम्यत्र किंकरोऽहं तव प्रभो । अत्रैव क्रियतां राज्यं प्राज्यं सद्धान्धवैः सह ॥ विवेश पत्तनं साधं कौन्तेयैः स महोत्सवैः। विनयी विनयं कुर्वस्तेषां प्रार्थयत स्थितिम् ॥ ___ इत्युक्त्वा विनयं कृत्वा गोष्ठेऽसौ गोकुलं न्यधात । स पुनः पार्थयामास प्रार्थमुद्वाहसिद्धये ॥ १६०' धनंजय सुता धन्या ममास्ति भोगभाजनम् । जरासंधसुतैः पूर्व प्रार्थितानेकशोऽपि सा॥ सुदती न मया दत्ता सुरूपा भूप भोगदा । तेभ्योऽतो भज तत्पाणिपीडनं पार्थ पार्थिव ॥ पार्थोऽवोचद्विराटेड् योऽभिमन्युर्मम नन्दनः। सुभद्रायास्तुजे तस्मै देहि दीप्तिधरां सुताम् ।। तत्क्षणं स क्षणं कृत्वा विवाहवरमङ्गलैः। विराटः सुघटाटोपेर्ददौ तामभिमन्यवे ॥१६४ ।। तदा कुन्ती समायाता ज्ञात्वा तेषां सुवैभवम् । किंवदन्ती तदा याता द्वारवत्यां महापुरि ॥ १५४ ॥ बडे कष्टसे कौरवराजा चेतनाको प्राप्त हुए। और लज्जापूर्ण तथा आनंदरहित-दुःखी होकर हस्तिनापुरको चले गये ॥ १५५ ॥ विकट-शूर विराटराजाने इनको पांच पाण्डव समझ नमस्कार कर और हस्ताञ्जाल मस्तकपर करके विज्ञप्ति की ॥ १५६ ॥ " हे भगवन् , हे देव मैंने इतने कालतक आपको नहीं जाना था कि आप धर्मराज हैं इस लिये आप मेरे आपराधकी क्षमा कीजिये । हे प्रभो, इस लोकमें आपही मेरे स्वामी हैं; मैं आपका किङ्कर हूं। आप यहांही अपने उत्तम बंधुओंके साथ राज्य कीजिए।" ऐसा कह कर और विनयकर राजाने गोठोंमे गोकुलकी व्यवस्था की ॥१५७-१५९॥ तदनंतर महोत्सवयुक्त पांडवोंके साथ विराटराजाने नगरमें प्रवेश किया । विनयी विराटराजाने उनका विनयकर यहांही आप निवास कीजिये ऐसी प्रार्थना की। पुनः पार्थकोअर्जुनको उसने विवाहके लिये प्रार्थना की। " हे धनंजय, मुझे भोगयोग्य एक भाग्यवती कन्या है। जरासंधराजाके पुत्रोंने अनेकवार पूर्वकालमें उसकी याचना की थी तो भी मैंने सुंदर दांतवाली सुन्दर भोगदायिनी कन्या उनको नहीं दी । इसलिये हे अर्जुनराज, उसके साथ तुम अपना विवाह करो" ॥ १६०-१६२ ॥ अर्जुनने विराटराजाको कहा कि “हे राजन् , सुभद्रामें उत्पन्न हुआ अभिमन्यु नामक मेरा पुत्र है उसे आप अपनी कांतियुक्त कन्या देवें। तत्काल विवाहके उत्तम मंगलोंके द्वारा महोत्सव करके उत्तम प्रभावस अभिमन्युको उत्तरा कन्या दी। पाण्डयोंका उत्कृष्ट वैभव जानकर कुन्ती उनके पास गई। तथा द्वारावती नगरमें यह वार्ता पहुंच १ सिर्फ 'म, स' प्रतियोंपरसे। पां. ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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